रचनाकार : विजय कुमार तैलंग, जयपुर (राजस्थान)
सत्तर रुपये लीटर के भाव का दूध पूरे सात सौ रुपये का बैठता था। यानी पूरे सात सौ रुपये का नुकसान। सेठानी जी का तो दिल बैठ गया।
नुकसान की खबर लगते ही सेठजी और सेठानीजी की बुद्धियाँ इस बात पर दौड़ने लगीं कि इस नुकसान की भरपाई कैसे हो? दोनों सिर भिड़ाकर कर इस मसले पर विचार करने लगे।
“ये सात सौ रुपये दूध वाले के खाते में डाल देते हैं। ” सेठजी ने बिना सोचे समझे सुझाया, इस पर सेठानी जी बोलीं –
” ऐसा न करना! वो दूध बंद कर देगा… और नहीं भी किया तो मिलावटी घी देकर अपना पैसा वसूल लेगा… और तो और, जो गेंहूँ देता है उसकी किस्म गिराकर अपनी भरपाई कर लेगा। एक बार उसको ऐसा चस्का लग गया तो हमेशा के लिए उसकी ईमानदारी संदेह के घेरे में आ जायेगी इसलिए उससे वसूलने की सोचना भी मत!”
“… तो क्या करना चाहिए? ” सेठजी बोले – आखिर इस नुकसान की भरपाई किसी न किसी से करनी ही होगी न? क्यों न खाना बनाने वाली की तनखा से काट लें? “
“अजी वाह! आजकल खाना बनाने वाली मिलती ही कहाँ हैं? उनके भाव काफी चढ़े हुए हैं। यही है, जिसे काफी मान मनौव्वल से रखा हुआ है। हर त्यौहार पर इसे साड़ी और मिठाई के साथ – साथ कुछ नकद ईनाम भी देती हूँ, तभी ये टिकी हुई है। पैसा काटने पर तुरंत काम छोड़ देगी। वैसे भी कहती रहती है कि मुझे तो कई जगह काम मिल रहा है। उसके जाने पर मुझसे तो नहीं होगा खाना बनाने का काम। … और अगर कोई दूसरी मिलेगी भी तो बढ़े हुए पैसों पर, वो नुकसान नहीं होगा क्या? ” सेठानी जी ने दलील दी।
“बात तो तुम्हारी ठीक ही है लेकिन दस लीटर दूध का जो नुकसान हुआ है, वो किससे वसूलें? ये भरपाई नहीं हुई तो मुझे चैन की नींद कैसे आयेगी?” सेठजी ने बेचैनी से कहा।
“एक काम करते हैं। बर्तन मांजने वाली माई की तनखा से काट लेते हैं। उससे ये कह देंगे कि तूने साफ बर्तन नहीं माँजा इसलिए हमारा दस लीटर दूध फट गया।” सेठानी जी ने सुझाया।
“….. लेकिन तुम्हीं तो कहती रहती हो कि उसका काम बहुत चोखा है। वह बर्तन बहुत साफ सुथरे माँजती है। वह गरीब भी है और तीन बेटियों की माँ भी है। उसका पति पहले ही गुजर गया है। ” सेठजी ने कहा। इस पर सेठानी जी ने तमक कर कहा-
“… तो क्या हुआ? यहाँ दो हजार महीना लेती है जबकि इतना काम भी नहीं है। इसपर उसका कोई हमारे घर से ही काम नहीं चलता, तीन घर उसने और बांध रखे हैं। क्या कमी है उसको? काम छोड़ भी देगी तो दूसरी मिल जायेगी, बल्कि पंद्रह सौ में! “
“अब, देख लो तुम्हीं! इसको अबकी बार के पेमेंट में सात सौ रुपये काट कर देना है!” कहकर सेठजी सोने चले गए।
घर हो या कोई संस्थान, कहीं भी सेठ – साहूकार लोग अपने नुकसान की भरपाई कर ही लेते हैं और उसका असर अधिकतर सबसे निचले तबके के कर्मचारी पर ही पड़ता है।
(काल्पनिक रचना)