चैप्टर—1
‘बिट्टू की मम्मी, आज चल रही हो न नए बने दुर्गा मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में? दोपहर बारह बजे से हवन—पूजन है और दो बजे से भंडारा है।’
नीलिमा का यह सवाल सुनकर शीला बोली, ‘हां, हां क्यों नहीं। दुर्गाजी की पूजा के साथ पेट की पूजा भी हो जाएगी। वैसे भी मुझे भंडारे बहुत अच्छे लगते हैं। क्या शानदार खाना मिलता है। पूरी, कचौड़ी, आलू की लाजबाव सब्जी और रायता! सच में मजा आ जाता है।’
‘ठीक है तुम तैयार हो जाओं। मैं भी तैयार होकर आती हूं। बहुत दिनों के बाद अपनी कॉलोनी में भंडारा हो रहा है। चलो अच्छा ही है! आज खाना बनाने की झंझट से मुक्ति तो मिलेगी।’ यह कहकर नीलिमा अपने फ्लैट में चली गई और शीला भी नहाने—धोने में लग गई।
करीब एक घंटे के बाद दोनों तैयार होकर निकलीं। नीलिमा ने अपनी स्कूटी पर शीला को बैठाया और पहुंच गई मंदिर।
इस मंदिर का निर्माण चंद दिनों पहले ही हुआ था और आज दुर्गाजी की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा थी। हवन—पूजन में भाग लेने सैकड़ों श्रद्धालु आए हुए थे। नीलिमा और शीला दोनों ही मूर्ति को हाथ जोड़कर आतुरता के साथ भंडारा शुरू होने की प्रतीक्षा करने लगीं। यथासमय भंडारा शुरू हुआ।
मंदिर की फिजाओं में मां दुर्गा के भजन गूंज रहे थे। इस भंडारे में न केवल कॉलोनी के लोग बल्कि शहर के बाहरी इलाकों से भी लोग बड़ी संख्या में आ रहे थे। इन सभी के चेहरों पर भक्ति और प्रसन्नता का भाव देखते ही बनता था। मंदिर आने वाले लोगों में नौ महीने के बच्चों से लेकर 90—90 साल तक के बुजुर्ग शामिल थे। इनमें महिलाओं और कन्याओं की संख्या काफी थी। क्या झुग्गी बस्ती वाले, क्या फ्लैटों में रहने वाले सब मां के दरबार में बिना किसी भेदभाव के तीन चार पंक्तियों में बैठकर भोजन कर रहे थे।
कुछ श्रद्धालु स्वयंसेवक बनकर खाना परसाई में सहयोग देने लगे। ‘पूड़ी—पूड़ी, गरमा—गरम सब्जी,’ आदि की आवाजें आने लगीं। मंदिर के प्रांगण में हो रहे इस भंडारे में लोग पंक्तिबद्ध बैठकर भोजन—प्रसाद ग्रहण कर रहे थे।
भंडारे के खाने की खुशबू नथुनों में जाने से शीला और नीलिमा दोनों के मुंह में पानी आ रहा था। वे बेताबी से अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रही थीं। नीलिमा ने दो बार भोजन ग्रहण कर रहे श्रद्धालुओं की पंक्ति में बैठने की कोशिश की किंतु भीड़ के दबाव के कारण उसे मन मसोसकर पीछे हटना पड़ा।
तीसरे धावे में नीलिमा और शीला की बारी आई। इसके बाद वे आलथी—पालथी मारकर पंक्ति में बैठ गईं।
पहले स्वयंसेवकों ने उनके सामने कागज के दोने, पत्तल और गिलास रखे। इसके बाद परसाई शुरू हुई।
खाना मिलते ही वे दोनों खाने पर ऐसी टूट पड़ीं जैसे कई सप्ताह से भूखी हों। आखिर में सूजी का गरमा—गरम हलवा भी दोनों ने दो—दो बार लिया।
क्रमश: (काल्पनिक कहानी )