रचनाकार : जयन्ती तिवारी, पश्चिमगांव, रायबरेली
बेटियां
माँ- बाप का कहना ना मानी,
पराये संग क्यो हुई फरार सखी।
क्यो तोड़ा रीति -रिवाजों को,
क्या दण्ड से थी अंजान सखी।।
यदि अपने रीति रिवाजों से,
तूने ब्याह रचाया होता।
तो उस घर जाती लक्ष्मी सी,
पैतिस टुकड़ो में ना बंटना होता।।
माँ-बाप तो जग के ईश्वर हैं,
कैसे तू इन्हें नकार गई।
ओ श्रद्धा तू जाने कैसे,
उस राक्षस को अपना मान गई।।
तुम सती भवानी लक्ष्मी हो,
ना मानो तुम बेगानी हो।।
हर जीव जगत में तुमसे है,
तुम इस जग की जगजननी हो।।
मत समझो तुम बेचारी हो,
तुम इस धरा की शक्ति हो।
तुम पतित पावनी गंगा हो,
तुम आदिशक्ति की शक्ति हो।।
क्या थी मजबूरी तेरी,
क्यो तूने ऐसा काण्ड किया।
मिलता कोई उससे अच्छा,
क्यो अपना धर्म बिगाड़ दिया।।
शर्मशार हुआ सनातन तुमसे,
नम होती हम सबकी आँखे ।
तुम क्यों लगती हो अपनी सी,
ना था कोई नाता तुमसे।।
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कविता
देखा जब भीड़ जमाने की,
तो याद मुझे तेरी आई।
क्यो जख्म दिया रुसवाई का,
क्या शरम नही तुझको आई।।
तेरा अपना परिवार बना,
मैं विकल खडी इस दुनिया में।
क्यो किया पराया है तुमने,
मै बसती थी तेरी अखियन में।
जब करते थे हम तुम मिल कर,
वो प्यार भरी मीठी बातें।
तुम भूल गए हमे याद अभी,
वो सारे कसमें वादें।।
छोड़ दिया तूने मुझको,
ये सजा एक दिन पाओगे।
जो जख्म दिया तूने गहरा,
एक दिन तुम ही पछताओगे
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गज़ल
सितारे चांद दिखते हैं,,, समय है रात ढलने का ।
मुझे इन्तजार बेसब्री से, ,सूरज के निकलने का ।।
अदा उसकी कहें या फिर ,,,,,,,,शोखिया उसकी ,
मुझे मदहोश करती हैं ,,,,,,निगाहें नाज करने का ।
मुझे अंदाज भाता है ठुमक कर,चाल जब चलती,
बड़ा बेबाक सा है लहजा ,,,,,,,,छत से उतरने का ।
शाम होते ही ,,,जश्न -ए -महफिल में मंडराने लगे ,
अब इन्तजार है बस उनको,,,,,, शम्मा जलने का ।
जब से उसने दिल में अपने ,रहने की दे दी जगह ,
अब तो ये मन करता नही ,,,,,बाहर निकलने का ।
वो आये हमारे दर पर ,,,,,,,,मरहम भी साथ लेके,
शौक था हमें भी खुद जख्म ,,,,,अपने सिलने का ।
गिरकर संभलने का,,,,,,,,सलीका भी आ जायेगा,
है”जयंती ‘को जरूरत ,,,,,,,सभी को समझने का ।
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गज़ल
हरसिंगार आज रात में ,,फिर गिरे होंगे ।
लगता नही शाख पर पत्ते फिर हरे होंगे ।।
शाम होते ही बसंत ,,आ के चला गया,
देखना अगले दिन फिर,, फूल गिरे होंगे ।
सोंचो दिन में क्यों नही,, ये फूल खिलते,
मायने इसके भी,,,,,,,,,,, बड़े गहरे होंगे ।
जंगल घूमा तो चीख रहा था, हर दरख्त,
वो डर रहे थे,,,किस बात के खतरे होंगे ।
ये मिजाज- ए -मौसम ,,,समझना होगा,
कभी गर्मी कभी सर्दी कभी कोहरे होंगे ।
कल मैंने चश्मा लगा कर उधर देखा जो
सब एक जैसे दिखे ,,,पर कई चेहरे होंगे ।
हौसला था आस्मां पर ,उड़ान भरने का,
पर क्या पता था ,,,,उड़ान पर पहरे होंगे ।
शौक से पाला “जयंती” ने ,,परिन्दों को,
कफस में डालकर,,,,,,,,, पर कुतरे होंगे ।
Very nice 👍