रचनाकार : दिविक रमेश, नोएडा
जब हम बालक की बात करते हैं तो हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश में अमीरी-गरीबी, जाति-पांत, भौगोलिक तथा अन्य स्थितियों आदि के कारण बालक बंटा हुआ है । आज के कुछ साहित्यकारों का उस ओर ध्यान हैं , लेकिन कल लिखे जाने वाले साहित्य में और ध्यान दिया जाना अपेक्षित है। अपने -अपने अनुभव के दायरों के बच्चों के बालमन को समझते हुए रचना होगा।
ग्रामीण परिवेश के बच्चों के साथ -साथ आदिवासी बच्चों तक ठीक से पहुंचना होगा।अभी यह चुनौती है। नए ढंग से, विशेष वर्ग के बालक के मन की एक कविता ’छाता’ है जो चकमक में प्रकाशित हुई थी-
छाता
सड़क!
हो जाओ न थोड़ी ऊंची
बस मेरे नन्हें कद से थोड़ी ऊंची।
मैं आराम से निकल जाऊंगा तब
तुम्हारे नीचे-नीचे
घर से स्कूल तक।
न मुझे धूप लगेगी, न बारिश।
हमारे घर में
नहीं है न छाता, सड़क!
आज ऐसी कहानियां उपलब्ध होने लगी हैं जो आज की विद्रूपताओं को उजागर कर रही हैं , मसलन लड़कियों के नाजायज स्पर्शों की अनुभवसम्पन्न समझ दे रही हैं ।गुस्ताखी माफ हो, स्वयं मेरी ही कहानी है -“सॉरी लू लू” जो साहित्य अकादेमी के द्वारा प्रकशित पुस्तक ‘ ‘लू लू का अविष्कार’ में संकलित है। ध्यान मैं अद्विक प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक ‘न हम पूरे, न अधूरे’ (संपादिका: व्योमा मिश्रा) की ओर भी खींचना चाहूँगा।
आनेवाले साहित्यकारों को ऐसी और अन्य बुराइयों से जूझ रहे बच्चों की दुनिया में भी झांक कर लिखना होगा। क्षमा शर्मा ने उचित ही लिखा है कि “बहुत से लोग समझते हैं कि फैंटेसी लिखना बहुत आसान है और उसमें कोई तर्क नहीं होता जबकि फैंटेसी लिखना, ऐसी कथा कहना जिसमें बच्चों का कुतूहल और जिज्ञासा जग सके एक कठिन काम है. इसीलिए अक्सर लोग कहानी लिखने का एक आसान सा रास्ता अपनाते हैं. सरकार के जो नारे चल रहे होते हैं वे उन पर कहानियां कविताएं लिखते हैं. ऐसी कहानियां हमें हजारों की संख्या में मिलती हैं जो बेहद अपठनीय होती हैं. इन दिनों पर्यावरण और ‘जेंडर सेंसिटाइजेशन’ पर लिखने वालों की भरमार है। ये कहानियां इतनी उबाऊ होती हैं कि इनके शुरुआती वाक्य पढ़ने के बाद सहज ही समझ में आ जाता है कि आगे क्या होगा।”
थोड़ी बात इलैक्ट्रोनिक माध्यम और टेक्नोलोजी के हौवे की भी कर ली जाए जिन्होंने विश्व के एक गांव बना दिया है। यह बात अलग हैं कि भारत में आज भी अनेक बच्चे इनसे वंचित हैं। इनसे क्या वे तो प्राथमिक शिक्षा तक से वंचित हैं। कितने ही तो अपने बचपन की कीमत पर श्रमिक तक हैं। अपने परिवेश ऒर परिस्थितियों के कारण अनेक बुरी आदतों से ग्रसित हॆं। वे भी आज के बाल साहित्यकार के लिए चुनॊती होने चाहिए ?
खैर जिन बच्चों की दुनिया में नई टेक्नोलोजी की पहुंच है उनकी सोच अवश्य बदली है। अच्छे रूप में भी ऒर गलत रूप में भी।
विषयांतर कर कहना चाहूं कि मैं टेक्नोलोजी या किसी भी माध्यम का विरोधी नहीं हूं, बल्कि वे मानव के लिए जरूरी हॆं। उनका जितना भी गलत प्रभाव है उसके लिए वे दोषी नहीं हॆं बल्कि अन्तत: मनुष्य ही है जो अपनी बाजारवादी मानसिकता की तुष्टि के लिए उन्हें गलत के परोसने की भी वस्तु बनाता है।फिर चाहे वह यहां का हो, पश्चिम का हो या फिर कहीं का भी हो। होने को तो पुस्तक के माध्यम से भी बहुत कुछ गलत परोसा जा सकता है। तो क्या माध्यम के रूप में पुस्तक को गाली दी जाए।
आज बहुत सा बाल साहित्य इन्टेरनेट के माधय्म से भी उपलब्ध है।अत: जरूरत इस बात कि है कि दोनों के बीच बहुत ही सार्थक रिश्ता बनाया जाए।
अंत में, एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या व्यापक संदर्भ में बच्चे को एक ऐसा पात्र मान लिया जाए जिसमें बड़ों को अपनी समझ बस ठूंसनी होती है। मैं समझता हूं कि आज जरूरत बच्चे को ही शिक्षित करने की नहीं है, बड़ों को भी शिक्षित करने की है। इसलिए बाल साहित्यकार के समक्ष यह भी एक बड़ी और दोहरी चुनौती है। वस्तुत: सजग लोगों के सामने मूल चिन्ता यह भी रही है कि कैसे रूढ़ियों में जकड़े मां-बाप और बुजुर्गों की मानसिकता से आज के बच्चे को मुक्त करके समयानुकूल बनाया जाए।
साथ ही यह भी कि आज के बच्चे की जो मानसिकता बन रही है उसके सार्थक अंश को कैसे प्रेरित किया जाए और कैसे दकियानूसी सोच के दमन से उसे बचाया जाए।
(समाप्त)