रचनाकार : दिविक रमेश, नोएडा
महाभारत और रामायण जैसे महान महाकाव्यों ने भी बाल कहानियों के बड़े स्रोत के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
शास्त्रीय और पहले के बाल साहित्य के श्रेष्ठ हिस्से के प्रति बिना किसी पूर्वाग्रह के कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता के बाद के भारतीय बाल साहित्य में बच्चों के अनुकूल ऐसा साहित्य लिखा गया है जो पुराने साहित्य की तरह उपदेशात्मक नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि हमें बच्चों को शास्त्रीय (classical) बाल साहित्य की जानकारी से वंचित रखना चाहिए। बंगाली में, जोगिंद्रनाथ सरकार द्वारा 1891में लिखित कहानियों की पुस्तक ‘हाँसी और खेला’ (हँसना और खेलना) ने पहली बार कक्ष-कक्षा- परंपरा को तोड़ा और यह बच्चों के लिए पूरी तरह मनोरंजनदायक बनी। संयोग से कुछ सीख भी लेना एक अतिरिक्त लाभ था।
कुल मिलाकर कहा जाए तो हिन्दी का बालसाहित्य लोरी,, पालना गीतो, प्रभाती, दोहा, गज़ल, पहेली, कविता, कहानी, उपन्यास, संस्मरण, जीवनी, नाटक आदि अनेक रूपों और विधाओं से सम्पन्न है । आज का बालसाहित्य तो कितने ही सार्थक प्रयोगों से समृद्ध है ।हिन्दी के बालसाहित्य और उसमें भी कविता के क्षेत्र में उसकी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति को रेखांकित करते हुए एक समय में प्रतिष्ठित बालसाहित्यकार और नंदन के संपादक स्व० जयप्रकाश भारती ने उस समय को बालसाहित्य का ’स्वर्णिम युग’ कहा था जिसे बड़े पैमाने पर स्वीकार भी किया गया।
बालसाहित्य के नाम पर एक अरसे तक ’बालक के लिए साहित्य’ लिखा जाता रहा है (यूं आज भी ऐसा होते देखा जा सकता है ) जबकि’ आज ‘बालक का साहित्य’ लिखा जा रहा है। पिछले वर्षों में यह समझ बहुत शिद्द्त से आई है कि बालक के लिए नहीं बल्कि बालक का बाल-साहित्य लिखा जाना चाहिए।इसका अर्थ है कि बाल-साहित्यकार को बालक बन कर साहित्य रचना होता है।
जब हम बालक के लिए लिखने का प्रयत्न करते हैं तो वह बालक पर प्राय:लादे जाने वाले बालसाहित्य का अभ्यास होता है।आज के तैयार बालक के लिए प्राय: उपदेशात्मक और उबाऊ होता है।आज का बाल-साहित्यकार सिखाने की पुरानी शैली के स्थान पर साथ-साथ सीखने की शैली में अपने को अभिव्यक्त करता है। वह अनुभव और ज्ञान के माध्यम से अर्जित अपनी समझ का बालकों को सहज भागीदार बनाता है।
आज का बाल-साहित्यकार कमोबेश बालक का दोस्त बनकर उसके सुख-दुख का, उसकी उत्सुक्ताओं और कठिनाइयों का यानि उसके सबकुछ का साझीदार होता है। अंग्रेजी के बाल साहित्य समीक्षक निकोलस टकर का मत भी इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य है- “ विश्व के नए बाल साहित्य के लिए यह जरूरी नहीं है कि वह एकदम साफ-सुथरा हो, उसकी कहानियां एकदम आदर्शपरक हों और उनका अंत सदा सुखदायी ही हो। यह तो वास्तव में अपने समयकाल से जुड़ा प्रश्न है। यदि बाल साहित्य में पाठक यह समझ लेता है कि इसके पीछे एक सुदृढ़ आग्रह है कि जीवन की कठिनाइयों से जूझने और जीवन जीने का वही फार्मूला अपनाओ जो हम बता रहे हैं तो वह तत्काल उसे छोड़ देता है।“ ( भारतीय बाल साहित्य, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, पृ. 15)।
वस्तुत: बालसाहित्य सृजन बहुत ही चुनौती का काम होता है। नामवर सिंह ने ठीक ही लिखा है ,”उनके लिए तो साहित्य वह है जो उन्हें हिलाये, डुलाये और दुलराये भी। यानी वे खुशी से झूम उठें।”
हमें यह भी समझना होगा (हालांकि समझा जा रहा है) कि विविधताओं से भरे भारत के संदर्भ में यह बालक बनना क्या है । यहां आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक, आयु आदि कारणों से बालक का भी विविधताभरा स्वरूप है । महानगरी बालक का स्वरूप वही नहीं है जो कस्बाई या ग्रामीण या जंगलों में रहने वाले बच्चे का है।
आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न बच्चे की मानसिकता वही नहीं है जो गरीबी में पल रहे बच्चे की है। आज के कितने ही बच्चों के सामने इंटरनेट, फिल्म तथा अन्य मीडिया की सुविधा के चलते एक नई दुनिया और उसके नए भाषा-रूप का भी विस्फोट हो रहा है और वे उससे प्रभावित हो रहे हैं। अत: आज का बाल-साहित्यकार बालक के बारे में परम्परा भर से काम चलाते हुए अर्थात उसके विकास की उपेक्षा करते हुए, सामान्य कुछ लिखकर अपने कार्य की इति नहीं कर सकता। सामान्य रूप और दृष्टि हो सकती है, अनुभव, उसका नया बोध और उससे जन्मी नई दृष्टि नहीं। यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों में हिन्दी के बालसाहित्य में जहां भाव और भावबोध की दृष्टि से बालक के नए-नए रूप उभर कर आए हैं वहीं रूप तथा भाषा-शैली में भी नए-नए अन्दाज और प्रयोग सम्मिलित हुए हैं, भले ही कुछ पहले की सोच में गिरफ्त जन उसे स्वीकार करने में कठिनाई झेल रहे हों।
जब हम बालक की बात करते हैं तो हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश में अमीरी-गरीबी, जाति-पांत, भौगोलिक तथा अन्य स्थितियों आदि के कारण बालक बंटा हुआ है । आज के कुछ साहित्यकारों का उस ओर ध्यान हैं , लेकिन कल लिखे जाने वाले साहित्य में और ध्यान दिया जाना अपेक्षित है।
अपने -अपने अनुभव के दायरों के बच्चों के बालमन को समझते हुए रचना होगा।
(क्रमशः)