रचनाकार : उत्तम कुमार तिवारी ‘उत्तम’, लखनऊ
चैप्टर-1
आज मेरा बहुत मन हुआ कि हम अपनी बड़ी दीदी के के सुन्दर चरित्र का चित्रण इन अनमोल शब्दों मे करने की कोशिश करें।
मेरी बड़ी बहन श्रीमती गीता राजे पांडे जी त्याग की मूर्ति रही हैं। मेरी दीदी हमसे पांच वर्ष बड़ी हैं। हम बहुत ही भाग्यशाली हैं कि मुझे दो माँ मिली थीं- एक कर्म की और एक धर्म की।
मेरी बड़ी दीदी मेरी धर्म की माँ हैं। एक प्रकार से देखा जाए तो मेरा पालन-पोषण मेरी बड़ी दीदी ने ही किया। मेरी माँ अक्सर बीमार ही रहती थी। हमको रोज स्कूल के लिए तैयार करना फिर मेरा हाथ पकड कर साथ में स्कूल ले जाना उनकी दिनचर्या में शामिल था।
स्कूल में हम उनकी ही क्लास में बैठने की ज़िद करते थे तो वो अपनी क्लास की अध्यापिका से विनती कर के थोडी देर अपने पास बैठा लेती थी, फिर हमको समझा कर हमारी कक्षा में बैठा देती थीं। हम ज्यादातर ग्रामींण परिवेश में रहे -अपनी नानी के यहां।
वहां तो उस परिवेश में रहने के कारण हम असभ्य थे। यदि हमारी कक्षा अध्यापिका हमको किसी बात पर डांटती थीं तो हम उनको बहुत ही फूहड गाली दे देते थे तो मेरी शिकायत तुरंत मेरी बड़ी दीदी के पास आ जाती थी। तब वो हमको भी समझाती थीं और अध्यापिका महोदया को भी समझा देती थीं कि ये अभी गांव से आए हैं सीख जाएंगे।
धीरे धीरे हम एक सभ्य समाज मे रहने लायक हो गए थे। इसका श्रेय मेरी बड़ी दीदी को ही जाता हैं। फिर दीदी का स्कूल और मेरा स्कूल बदल गया था फिर उनके स्कूल का समय बदल गया था। उनका समय 11 बजे से शाम को 5 बजे का हो गया था तो दीदी हम लोगों का खाना बना कर रख दिया करती थीं। फिर अपने स्कूल जाती थीं। उस समय आर्थिक अभाव भी था।
हम छह भाई बहन थे। सबके ऊपर बड़ी दीदी का ही शासन था। कोई भी शैतानी हम लोग करते थे तो पकड कर खूब अच्छी तरह से कूट देती थी। यदि कोई भी हमारी शिकायत ले कर आ जाए तो उससे भी लड जाती थी कि पहले अपने बच्चे को समझाओ, लेकिन उसके जाने के बाद फिर हमको वो अपनी भाषा मे समझा देती थीं।
स्कूल का सारा पढ़ाई का काम पूरा करवाना उनकी दिनचर्या में था। उस समय मेरे घर पर मेहमानों की भीड लगी रहती थी- वो भी गांव के लोगो की। 15.-20 लोग आ जाते थे एक साथ क्योंकि मेरे बाबूजी लखनऊ मेडिकल कालेज मे थे। हमारा घर एक प्रकार से धर्मशाला था जिसको देखो वही टिक जाता था। उन सबके भोजन की व्यवस्था करना, बनाना मेरी दीदी की ज़िम्मेदारी थी।
उस समय या तो चूल्हा और थोड़ा नए ज़माने की लकडी के बुरादे की अगीठी थी। उसमे 15.-20 लोगो का खाना बनाना बहुत ही कष्टप्रद था। उसमे भी गाव के लोगों का खाना जो कि एक एक आदमी 15.-15 रोटी, चावल खाता था।
एक कहावत हैं कि -.
एक तो बड़ेन बड़ेन मा नाम,
दूजे बीच डगर मा गाव
तीजे भयन बित्त से हीन
भईया हम पर बिपदा तीन।
हालत यही थे। फिर वो चूल्हे के बर्तनों का मांजना शुरू होता था। दीदी मांजती थीं और हम धोते थें।
उस अंगीठी मे जाडे में तो खाना बनाना ठीक था लेकिन बरसात मे बहुत मुश्किल भरा काम होता था क्योंकि बुरादा गीला, लकडी गीली। फिर भी वे खाना कैसे बनाती थी, ये उनकी आत्मा ही जानती थी।
उस समय पानी की बहुत किल्लत थी। नल पर तड़के से ही बाल्टियों की लाइन लगानी होती थी तब कहीं जाकर रात मे नंबर आता था।
क्या उनका जीवन रहा। माँ अस्पताल में भरती थी। अस्पताल घर से कम से कम 7-.8 किलोमीटर दूर था।
क्रमशः
(सत्य घटनाओं पर आधारित )