चैप्टर – 1
आखिरकार वह दिन आ ही गया जिसका हम पांच सालों से इंतजार कर रहे थे। वह शुभदिन था शुक्रवार 17 नवंबर। इस दिन प्रदेश की सरकार चुनने के लिए वोटिंग होनी थी। हम यानी हमारे तीन फैमिली मेम्बर्स भी सुबह —सुबह वोट देने के लिए अपने घर से निकल पड़े। हमें अपना वाहन ले जाना उचित नहीं लगा क्योंकि पोलिंग बूथ घर से जस्ट दस कदम की ही दूरी पर था। ऐसे में हम तीसरी कसम का यह गाना गुनगुनाते हुए पोलिंग बूथ तक पहुंचे — न गाड़ी है न घोड़ा है, वहां पैदल ही जाना है। सजन रे झूठ मत बोलो! अब चुनाव से पहले नेताओं ने क्या सच बोला क्या झूठ, कौन सच्चा है और कौन झूठा इन सब के बारे में हमें ईवीएम का केवल एक बटन दबाकर फैसला करना था।
खैर मतदान केंद्र के बाहर तक तो बढ़िया सीमेंटेड सड़क थी जिसे कि हाल ही में चुनाव से ऐन पहले बनवाया गया था। लेकिन मतदान केंद्र ब्लैकबेरी स्कूल के ऐन बाहर बढ़िया कीचड़ का इंतजाम था। ढेरों वीवीआईपी गाड़ियां भी ऐसे खड़ी की गई थीं कि बिना कीचड़ से गुजरे मतदानकेंद्र तक पहुंचना ही असंभव था। ऐसे में कीचड़ के दरिया में हम पैर गीले करते हुए अपनी मंजिल की ओर बढ़े।
चूंकि 8 बज गए थे अत: कतार का सिलसिला शुरू हो गया था। इसके पहले एक घंटे तक तो कुछ खुशनसीब लोग बिना कतार के ही वोट देकर आ गए थे क्योंकि उस समय बहुत कम मतदाता मतदान करने पहुंचे थे। लेट पहुंचने से कतार में खड़े होने की मशक्कत तो करनी ही थी। ऐसे में हम 15वें नंबर पर हमारे हसबैंड 16वें नंबर पर और हमारी बिटिया 17वें नंबर पर कतारबद्ध हो गए। वहां कुछ ऐसे लोग थे जो कतार में लगने से कतरा रहे थे। अब इन लोगों ने जो—जो गुल खिलाए वे काफी यादगार रहे। क्या इमोशनल ड्रामा हुआ, और कैसे लोगों ने सिम्पैथी बटोरी, कैसे कुछ लोगों ने कुर्सी झपटी, कैसे कुछ ने इस मौके को अपनी रईसी का रौब झाड़ने के लिए इस्तेमाल किया, कैसे आम आदमी की औकता पता चली। यह सब आप नीचे जानेंगे।
सीन—1 इमोशनल ड्रामा
एक बुजुर्ग सज्जन आते हैं। बेटे ने उनका दायां हाथ थाम रखा है। बेटी ने बायां। चेहरे पर 12 बजे हुए। माथे पर शिकन की जबर्दस्त लकीरें। उनकी बिटिया बोलती है — बाबूजी के घुटनों में दर्द है। कतार में लगे वोटर पीछे हट जाते हैं। उन्हें आगे जाने देते हैं। वे अपने बेटे—बेटी के सहारे लोकतंत्र के मंदिर की चौखट पार करते हैं। वोट देकर बाहर निकल जाते हैं। बस, बाहर निकलते ही उनके घुटनों का दर्द ऐसे गायब हो जाता है जैसे कि गधे के सिर से सींग! वे मजे में स्कूटर चलाते हुए अपने घर की ओर चल देते हैं। उनके बेटे और बिटिया बाद में वोट देकर निकल जाते हैं।
सीन—2 कुर्सी झपट
यों तो ये चुनाव कुर्सी के लिए होते हैं। लेकिन कुछ लोग बिना खड़े हुए कुर्सी पाना चाहते हैं। वे बिना कुर्सी के रह नहीं पाते। ऐसा ही कुछ नजारा पेश किया एक मध्यवय लेडीज ने। चेहरे पर मेकअप। तन पर बढ़िया शिफौन की साड़ी। पोलिंग बूथ के बाहर गाड़ी से उतरीं। कुछ लंगड़ाने की एक्टिंग की। फिर मतदान केंद्र के गेट के बाहर ऐसे हो गईं मानो गश खाकर गिरने वाली हों। दो—चार लोगों ने संभाला। उनकी बेटी ने घबराए स्वर में पूछा— ममा क्या हुआ़? मम्मी बोली— कुछ नहीं बेटा ऐसे ही चक्कर आ गया। हम समझ नहीं पा रहे थे कि यह चक्कर क्या है? फिर लोग उन्हें कतार के बगल में रखीं कुर्सियों तक ले गए और एक कुर्सी बढ़िया झाड़—पोंछकर उनके लिए पेश की। जैसे ही कुर्सी मिली चेहरे पर चार इंच लंबी मुस्कान तैर गई। ऐसी मुस्कान जो शायद उस मतदान केंद्र के विजेता विधायक के चेहरे पर भी नहीं आएगी। उनका मकसद पूरा हुआ। तीन—चार वोटरों के बाद उन्हें वोट डालने दिया गया। इसके बाद वे आनन—फानन में यों निकलीं मानो बहुत बड़ा किला फतह कर लिया हो।
क्रमशः (काल्पनिक कहानी )