आखिरी चैप्टर
सीन— 3 रईसी का प्रोमो
वोटिंग के मौके को अपनी रईसी दिखाने के लिए कैसे इस्तेमाल किया जाए? यह कुछ लोग अच्छी तरह जानते हैं। दो महिलाएं आपस में बातें करती दिखती हैं। इनमें से एक ने कोई छह साल पहले अपने घुटनों के दर्द से निजात पाने के लिए घुटनों के ट्रांसप्लांट का सहारा लिया होगा।
वह दूसरी महिला से कहती है— क्या बात है? बड़ी मुरझाई सी दिख रही हो?
दूसरी महिला— अब क्या बताउं बहन घुटनों के दर्द से परेशान हूं।
पहली महिला— कुछ करवाया नहीं।
दूसरी महिला— करवाया था। इंजेक्शन लगवाया था।
पहली महिला— अरे! इंजेक्शन तो बेकार की चीज है। पैसे कम तो लगते हैं पर फायदा भी नहीं होता। मैंने तो छह साल पहले दोनों घुटनों का ट्रांसप्लांट करवाया था। कोई पांच—छह लाख का खर्चा हुआ था। पर अभी तक कोई तकलीफ नहीं होती। ट्रांसप्लांट से पहले वेस्टर्न कमोड का सहारा लेना पड़ता था पर अब देसी में भी जाने से कोई तकलीफ नहीं होती।
अब उनकी ऐसी बातें सुनके दूसरी महिला पर क्या बीती होगी, ये तो वो जानें पर हमें इतना तो समझ में आ ही गया था कि पहली महिला पैसे वाली है और इस मौके पर अपनी रईसी का विज्ञापन करने से भी बाज नहीं आ रही है।
सीन—4 आम आदमी की औकात
इन्हीं सब सीन्स को देखते—परखते हम जैसे ही वोट डालकर मतदान केंद्र से बाहर जाने को हुए कि तभी वहां हीरो की इंट्री हो गई। हीरो यानि कोई बड़े नेता। बस क्या था? मीडियाकर्मियों, सुरक्षाकर्मियों सबने मतदान केंद्र के इकलौते एक्जिट गेट पर घेराबंदी कर ली। बाहर निकलने का एक ही रास्ता और वह भी बंद। मीडियाकर्मी उस नेता की इंट्री, मुस्कान, हावभाव, एक्शन आदि को अपने—अपने कैमरों में कैद करने में लग गए और हम उनकी तथा सुरक्षाकर्मियों की घेराबंदी में कैद होकर एक कोने में दुबककर खड़े हो गए।
कल तक जो नेता हम जैसे वोटर के पास एक—एक वोट के लिए गिड़गिड़ाते दिख रहे थे वे हमारे वोट डालने के बाद हमें ही एक कोने में शरण लेने को मजबूर करते हुए दिख रहे थे। कुल मिलाकर हमें समझ में आ गया था कि वोट डाल देने के बाद एक वोटर की, एक आम आदमी की औकात क्या होती है?
हम जैसे—तैसे उस भीड़—भड़क्के से रास्ता निकालकर अपने घर की ओर चल पड़े।
हां, इस बात का संतोष जरूर था कि सबकुछ शांतिपूर्वक हो गया और लोकतंत्र के मंदिर पोलिंग बूथ में हम पूरी श्रद्धा के साथ अपना सिर नवाकर चले आए।
(काल्पनिक कहानी )