विजय कुमार तैलंग, जयपुर
“जानती हूँ। ” वह जल्दी से बोली और अपने ही उतावलेपन पर शरमा गयी।
यह था सुयश व इशिता का पहला आपसी परिचय। कॉलेज में कभी मिले नहीं, बस, जानते थे कि वे दोनों एक ही कॉलेज के स्टूडेंट्स हैं। सुयश की गंभीर छवि इशिता को पसंद थी और पसंद थी यह बात कि कॉलेज की भटकाऊ और भड़काऊ जिंदगी से निरपेक्ष रह वह अपने अध्ययन से मतलब रखता है।
इशिता चुलबुली तो नहीं थी लेकिन वह सुयश को अच्छी लगने लगी थी। बाकी सब उनके मध्य औपचारिक ही था।
सुयश के पिता व कोई भाई, बहिन नहीं थे। बस, माँ ही थी। पिता एक मकान अवश्य छोड़ गए थे जिसमें ये दोनों रहते थे। एक बार सुयश ने अपना घर इशिता को दिखाया था तो वह ताज्जुब कर गई कि अपने मकान के रख रखाव का खर्च, अपने कॉलेज की फीस, यहाँ तक कि उस समय के आधुनिक वस्त्रों पर खर्च, बाइक और माँ का पूरा ख्याल रख पाना एक कॉलेज स्टूडेंट के अकेले के वश की तो बात नहीं लगती। जबकि उसका आमदनी का जरिया कुछ और न हो। सुयश की माँ गठिया की मरीज भी थी अत: वह कहीं आती जाती भी न थी।
उसकी देखभाल को एक महिला भर आती थी, नाम था “खूबी”!
उस दिन इशिता के सामने ही खूबी ने अपने आँचल में छुपाया, अखबार में लिपटा एक पैकेट सुयश के सामने रख दिया। सुयश ने तुरंत आँख के इशारे से पैकेट दूसरे कमरे में रख आने को कहा तो खूबी ने तुरंत इसकी पालना कर दी।
” कुछ नहीं, 12वीं कक्षाओं के नोट्स की किट थी जो एक स्कूल में एक परिचित के बच्चे को देनी है। ” सुयश ने कमजोर सी दलील दी लेकिन इशिता को हज़म नहीं हुई!
सुयश की चौंकाने वाली कुछ बातों से इशिता का भरोसा हिल गया था, उसे लगा सुयश किसी अवैध धंधे से धन अर्जित कर रहा है, इसलिए उसने सुयश से दूरी बना ली थी।
इसी दौरान एक दिन सुयश का इशिता के लिए फोन आया। इशिता ने न चाहते हुए भी उठा लिया – “हैलो! “
“इशिता, मुझे तुम्हारी कुछ हैल्प चाहिए।”
“कैसी हैल्प? “
“मैं माँ को एक डॉक्टर को दिखाने दूसरे शहर लाया हूँ। कल सुबह तक घर पहुँच जाऊंगा। इसी बीच शाम को खूबी आपको एक पैकेट देगी, वो संभाल कर रख लेना। मैं आते ही तुमसे ले लूंगा। “
जाने क्यों इशिता सुयश को मना नहीं कर सकी, सिर्फ “हूँ” कहकर रह गई।
क्रमश:
Very engaging!