विजय कुमार तैलंग, जयपुर
सभ्रांत व्यक्ति ने पूछा -“क्या तुम्हीं इशिता हो? “
“हाँ” इशिता ने कहा और अभिवादन करते हुए बैठक में बैठने को कहा। वह उनके लिए जल लेने गई। ये तो खुद प्रिंसिपल रमाकांत जी हैं। उसने जल लेकर बैठक में प्रवेश करते हुए कहा – “सर, मैं आपके विद्यालय की छात्रा रह चुकी हूँ। “
“ओह, ये तो बड़ी खुशी की बात है। ” जल पीकर प्रिंसिपल जी ने कहा – “मेरी सुयश से बात हुई थी एक एजुकेशन किट पैकेट के विषय में। आज उसे आना भी था लेकिन किसी कारण आ नहीं पाया इसलिए उसने आपका पता मुझे दे दिया कि पैकेट इशिता के पास ही मिलेगा।”
“यस सर, मैं अभी लाई! ”
इशिता ने रमाकांत जी को वो पैकेट देते हुए पूछा – “सर, आप सुयश जी को कैसे जानते हैं? “
प्रिंसिपल रमाकांत जी बोले -” सुयश के पिता मेरे परम मित्र थे। वे एक प्रकाशक थे। उनकी अपनी प्रेस थी। हैदराबाद से वे अधिकतर शिक्षा की पुस्तकें, सोल्व्ड, अनसॉल्व्ड पेपर्स, गाइडें और अपनी भी शिक्षात्मक पुस्तकें प्रकाशित करवाया करते थे, जो सीनियर कक्षा के छात्रों के लिए परीक्षा के समय या वैसे भी संजीवनी बूटी का कार्य करते थे। वे पैकेट बनाकर मुझे वहाँ से बस द्वारा भिजवाया करते थे। अब वे नहीं रहे और सुयश ने उनका प्रेस अन्य को बेच दिया इस एग्रीमेंट के साथ कि जो भी एजूकेशन मैटेरियल वे प्रकाशित करें उन सबके सैंपल एक दो पैकेट में मुझे भेज दें। असल में स्कूल में मैं सीधे अपने नाम से नहीं मंगाता था अत: सुयश ने रोडवेज में जानकारी निकाल कर एक वहीं के कर्मचारी द्वारा बस से पैकेट लेकर उसकी पत्नी द्वारा स्वयं मंगवाकर मुझे दे देता है।
“सर, क्या एक बात और पूछूँ? ” इशिता बोली।
“पूछो! ” प्रिंसिपल रामकांत जी उठते उठते पुन: बैठ गए।
“सुयश जी, कुछ कमाते नहीं हैं फिर भी माँ की देखभाल, अपने मकान के रख रखाव का खर्च और अपना स्टेटस कैसे मैन्टैन करते होंगे? “
प्रिंसिपल मुस्कुराये और बोले – “सुयश बचपन से मुझे “चाचा जी” कहता आया है!
पहले मैं भी हैदराबाद में ही पदस्त था। कालांतर में मेरा ट्रांसफ़र इस शहर में हो गया और सुयश के पिताजी भी चल बसे तब सुयश अपने पुश्तैनी मकान (जो यहीं है) में आ गया। यहीं से ग्रेजुएशन कर रहा है। प्रेस बेचने पर उसने पुराने बाजार में दो दुकानें लेकर किराये पर डाल रखी हैं जिनके किराये से वह सब मैन्टेन कर लेता है। अच्छा बेटी, अब चलता हूँ! “
“सर, चाय पियेंगे? “
“आज नहीं, फिर कभी!” कहकर रामकांत जी उठकर चल दिये।
इशिता के मन से अब सब शंका के बादल छँट चुके थे। जो सुयश का भविष्य अब तक पुलिस द्वारा बेड़ियों में जकड़ा नज़र आता था, आज वही सुयश का चरित्र उसे सूरज के समान प्रखर दिखाई देने लगा था। वह उसके आने का इंतजार कर रही थी। उसका मन कर रहा था कि आते ही वह सुयश की बाँहों में झूम जाए!
(काल्पनिक रचना)
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