रचनाकार :’ पलक नेमा, मुंबई
आज कुछ सव़ाल उमड़े मेरे मन में सोच़ा आप लोगों से स़ाझ़ा करूँ।
ये सव़ाल कोई नए नहीं है शायद आप सभी लोगों ने अपने जीवन में एक दफ़ा तो ज़रूर सुने ही होंगे मगर जव़ाब, जव़ाब से आज तक हम सब वाकिफ नहीं हुए और अगर वाकिफ हुए भी हैं तो क्या सिर्फ यही क़ाफी है, क्य़ा सिर्फ वाकिफ होने बस से हर सवाल का अंत हो जाता है ??
खैर चलिए मुद्दे पर आते हैं!
कभी सोच़ा है आपने की कोई भी पुरुष, स्त्रियों के भाँति अपने भिन्न-भिन्न स्वभाव को खुलकर व्यक्त क्यों नहीं कर पाता है?
कभी सोचा है आपने हर पुरुष समाज में इतना सख्त मर्दाना स्वरुप लिए क्यों भटकता रहता है?
कभी सोचा है आपने की पुरुषों के पास भी तो वही ह्रदय है जो स्त्रियों के पास है फिर तो उसमे भावनाओं का समंदर भी होगा, मगर कौन सी भावनाएं?
नहीं-नहीं भावनाएं नहीं सिर्फ भावना, हाँ जी सिर्फ भावना, वो भी वही जो इस समाज ने हमेशा से उनपर थोपी है – हमेशा “सख्त” रहने की भावना।
जब एक बच्चा जन्म लेता है तो वो हर एहसास, हर भावना से अनजान रहता है यहाँ तक की इस बात से भी अनजान रहता है कि हमारे इस समाज में नर और नारी में कितना अंतर किया जाता है, शायद इसलिए ही तो उस बच्चे की हंसी हो या आंसू कुछ भी छुपता नहीं है। बिना किसी भेदभाव के वो अपनी हर भावना को खुलकर व्यक्त कर पाता है।
फिर यही सिलसिला जीवन भर कायम क्यों नहीं रहता है ? क्यों हम पुरुषों के दिमाग में हमेशा ये घर कर देते हैं की उन्हें अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का हक़ नहीं है, हम होते कौन है किसी को उसका हक़ देने या छीनने वाले?
किसी भी पुरुष की जब भी बात की जाती है तो उसके एक ही व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला जाता है – कठोर, मज़बूत, सख्त।
क्या वाकई कोई पुरुष मानसिक तौर पर इतने मज़बूत होते हैं जितना ये समाज बतलाती है?
कितनी सारी भावनाएं हैं जो हर जीवित इंसान में पाई जाती हैं – रोना, हँसना, प्रेम, गुस्सा, दर्द, और ना जाने कितने ही हैं मगर कुछ भावनाओं पर इस समाज ने पुरुषों के लिए प्रतिबन्ध लगा कर रखा है।
क्यों है ये प्रतिबन्ध? – क्या सिर्फ इसीलिए की मर्द को दर्द नहीं होता तो व्यक्त करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता लेकिन दर्द तो बहुत होता है तो फिर शायद ये प्रतिबन्ध इसीलिए लगाए गए हैं क्यूंकि पुरुषों को हमेशा से ये ही सिखाया जाता है की उनकी सिर्फ एक ही जिम्मेदारी है और वो है उनका परिवार, इसमें कुछ गलत नहीं है की बचपन से ही उन्हें जिम्मेदार बनाया जाता है मगर इस जिम्मेदारी के पाठ में ये क्यों सिखाया है की उन्हें हमेशा सख्त, हमेशा मजबूत बनकर रहना है चाहे कुछ भी हो जाए, उन्हें रोना नहीं है, किसी के सामने अपना दर्द ज़ाहिर नहीं करना है।
हम में से कितने लोग ऐसा सोचते होंगे कि ये तो कमज़ोर व्यक्ति की निशानी है – रोना, बिलखना, दर्द ज़ाहिर करना। लेकिन ऐसा नहीं है, बल्कि ये तो भावनाओं के ही प्रकार हैं जिसे व्यक्त करने से हम कमज़ोर नहीं बल्कि मानसिक तौर पर मज़बूत बनते हैं।
भावनाएं व्यक्त करने से ना ही परिवार की जिम्मेदारी पर फर्क पड़ता है और ना ही कोई व्यक्ति कमज़ोर साबित होता है।
मगर हाँ , ऐसा ना करने से कुछ भयानक ज़रूर होता है, जो की है खामोशी और दूरी।
अगर एक बार ख़ामोशी किसी इंसान के अंदर घर कर गई तो वो इंसान कभी भी उस सन्नाटे की खाई से वापस लौट कर नहीं आ पाएगा और दूरियां, दूरियां सिर्फ अपनों से ही नहीं बल्कि वो एक दिन खुद से हमेशा के लिए दूर हो जाएगा।
अगर हम समझे पुरषों को, उनके अंदर झांके तो देख पाएंगे की अपनी भावनाएं व्यक्त ना करने के कारण उनके अंदर शब्दों का, भावनाओं का कितना गहरा समंदर है।
ऐसा नहीं है की कोई भी पुरुष कभी चाहता ही नहीं की वो अपनी हर चीज़, हर बात, हर दर्द महसूर करें, व्यक्त करें, किसी के साथ सांझा करें।
बस उन्हें एक सही व्यक्ति की तलाश है जो कभी उन्हें आंके ना, जो कभी उनका मज़ाक, उनके दर्द का मज़ाक ना बनाये, जो चली आ रही रीत को झुटला दे और उनसे कहे की रोना चाहते हो तो रो लो, तकलीफ में हो तो महसूस कर लो, दर्द हो रहा है तो मान लो पर छुपकर नहीं मेरे सामने, हम सबके सामने क्यूंकि तुम भी आज़ाद हो, इंसान हो, तुम्हे भी हक़ है, महसूस करो, व्यक्त करो हर एक भावना को क्यूंकि ये भी तुम्हारी जिंदगी का हिस्सा है और ये ज़िन्दगी, ये हक़, उस ऊपर वाले ने दिया है सबको वो भी बिना कोई भेदभाव किए।
Very nice 👍
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