चैप्टर -1
मम्मी, ओजस को जल्दी डाक्टर के पास दिखाने ले जाना होगा। देखो न,उसके पैर कैसे अकड़ गए हैं। वह ठीक से उठ भी नहीं पा रहा है। बेचारा!
अपने पालतू रैबिट की ऐसी हालत देखकर रिया के मन में उसके प्रति दया उमड़ आई। उसने बड़े ही विस्तार से अपने खरगोश की हालत मम्मी संध्या को बताई। यह सुनकर संध्या का भी धीरज छूट गया और वे फौरन बालकनी में रखे खरगोश के पिंजरे के पास पहुंचीं। ऐसे तो वे उस सुबह नाश्ता बनाने की तैयारी कर रही थीं। पर खरगोश का हाल सुनकर उनकी बैचेनी बढ़ गई और वे नाश्ता बनाने की तैयारियां छोड़कर खरगोश की हालत सुधारने और उसे खाना—पानी आदि देने में रिया की मदद करने लगीं।
ओजस अपने पिछले पैरों का सहारा लेकर बार—बार उठने की कोशिश कर रहा था पर शरीर में इतनी ताकत नहीं लग रही थी कि वह अपने पैरों पर खड़ा हो सके। उसकी सांस भी धीमी चल रही थी। कान नीचे की तरफ झुक गए थे। आगे के दोनों पैर भी ऐसे हो रहे थे कि मानो उनमें ताकत ही नहीं हो। वह न तो ठीक से खा पा रहा था और न ही पानी पी पा रहा था।
पापा धीरेंद्र चौहान ने भी उसे सहारा देकर उठाने की कोशिश की। रिया ने भी काफी आवाजें लगाईं, प्यार से पुचकारा, सहलाया पर उस पर कोई असर नहीं हुआ। धीरेंद्र को लगा कि आज उन्हें आफिस पहुंचने में देर हो जाएगी। उन्होंने भांप लिया था कि खरगोश की हालत काफी सीरियस है और उनकी बेटी बेहद इमोशनल है, अत: वह उसके बिना रह नहीं पाएगी। ऐसे में उन्होंने आफिस आने में देर होने की सूचना देने के लिए बॉस राघवेंद्र सिंह को अपने मोबाइल फोन से काल लगाया पर संभवत: कहीं व्यस्त रहने के कारण वे काल उठा नहीं सके। कोई चारा नहीं देखकर धीरेंद्र ने आफिस पहुंचने में देरी होने की सूचना देते हुए एक मैसेज टाइप करके बॉस के नंबर पर भेज दिया। इसके बाद वे थोड़े उदास होकर खरगोश को उसके पैरों पर खड़ा करने की कोशिश में लग गए।
संध्या ने अपने पति धीरेंद्र से कहा कि ओजस की तबियत ठीक नहीं लग रही। लगता है उसे डाक्टर के पास ले जाना पड़ेगा।
यह सुनकर धीरेंद्र झल्लाते हुए बोले— एक तो सुबह—सुबह इतना काम, दूध लाओ, सब्जी लाओ, और ऊपर से रिया का खरगोश बीमार पड़ गया। लो अब करो उसकी तीमारदारी। डाक्टर के पास ले जाने में पैसे ठुकेंगे सो अलग! घर में कोई जीव पालने से पहले कम से कम सोच लिया होता। पापा क्या—क्या करेंगे? आफिस जाएं कि खरगोश की देखभाल करते रहें! ये रिया भी बिलकुल भी नहीं सोचती। बस, शौक दुनिया भर के हैं पर करना—धरना कुछ नहीं— सिवाय हल्ला मचाने के!
धीरेंद्र की तल्ख होती आवाज संध्या और रिया दोनों को ही चुभ रही थी। रिया को भी झुंझलाहट हो रही थी पर उसने अपनी आवाज को भरसक नरम बनाते हुए कहा, पापा! मौजूदा हालात में मैं जो कुछ कर सकती हूं,कर रही हूं न! यह ढाई साल से अपने पास है। इसने कभी ऐसे परेशान नहीं किया। जब पिंजरे से बाहर निकालो तो थोड़ी—बहुत उछल—कूद कर लेता है। यहां तक कि गंदगी भी पिंजरे में ही करता है। जब मैं इस पर प्यार से हाथ फेरती थी तो कैसे अपनी छोटी सी गुलाबी सी जीभ निकालकर मेरे हाथ को चाटने लगता था। उस स्नेह भरे स्पर्श को मैं कैसे भूल सकती हूं? वह अक्सर अपनी हरकतों से हम सबका मन बहलाया करता था। अब अचानक उसे क्या हो गया, कुछ समझ में नहीं आ रहा।
ठीक है—ठीक है। ज्यादा उपदेश मत दो। अभी इसके पैरों में हल्दी लगा दो। शाम तक आराम पड़ जाएगा। धीरेंद्र ने तीमारदारी से जान छुड़ाने के अंदाज में कहा। पति की बात मानकर संध्या ने एक कटोरी में हल्दी घोलकर दी जिसे रिया ने रैबिट के पैरों पर लगा दिया। इसके बाद संध्या ने जल्दी—जल्दी धीरेंद्र के लिए नाश्ता—टिफिन का इंतजाम किया। धीरेंद्र जल्दी से आफिस आकांक्षा इंटरप्राइज निकल गए।
क्रमशः (काल्पनिक कहानी )