आखिरी चैप्टर
धीरेंद्र जल्दी से आफिस आकांक्षा इंटरप्राइज निकल गए।
ओजस की देखभाल करने की अपनी जिम्मेदारी समझते हुए रिया ने उस दिन स्कूल जाना उचित नहीं समझा। मम्मी भी उसकी समय—समय पर पूरे दिन मदद करती रहीं।
अगले दिन ओजस और सुस्त नजर आ रहा था। ऐसे में संध्या ने उसे डाक्टर के पास दिखाने का प्रस्ताव रखा। इस पर धीरेंद्र झुंझलाते हुए बोले— अरे! तुम लोगों को रैबिट की पड़ी है। उधर बॉस एक जरूरी फाइल नहीं मिलने के कारण मेरी जान खाए हुए हैं। मेरे बस का नहीं है ये डाक्टर—वाक्टर के पास जाना! जिसे जाना होगा चला जाए। न मेरे पास फालतू पैसे हैं। ऐसे भी बढ़ती महंगाई में इतनी कम सैलरी में गुजर—बसर मुश्किल से हो रही है। रिया की स्कूल की फीस भरनी है। खरगोश का क्या है? जितने डाक्टर और दवाइयों में पैसे बर्बाद करोगी उतने में तो दो—तीन खरगोश बाजार से मिल जाएंगे। इसे कहीं जंगल—झाड़ियों के बीच पटक आओ। कुदरत अपनेआप इलाज कर देगी!
संध्या और रिया को धीरेंद्र की ये बातें कलेजे में तीर की तरह चुभ रही थीं। पापा को तेज गुस्से में देखकर किसी की हिम्मत कुछ कहने की नहीं पड़ रही थी। अत: दोनों ने थोड़ी देर होंठों को सी लेना उचित समझा।
जब पापा का गुस्सा थोड़ा कम हुआ तो रिया बोली— पापा! ओजस कोई आब्जेक्ट नहीं है। उसकी हमारी जैसी जान है। वह तो बोलता तक नहीं है। अपने दर्द का इजहार तक नहीं कर सकता। हम उसकी सांसें छीनकर क्या हासिल कर लेंगे? रही बात पैसे की तो मैं अपने पाकेट मनी से इसका इलाज करा दूंगी। यदि थोड़ा सा खर्च करके हम उसकी जान बचा सकें तो इससे बेहतर क्या हो सकता है?
संध्या— हां डियर! पैसे की चिंता मत करो। हम लोग भी तो अपने इलाज पर कभी—कभी खर्च करते हैं कि नहीं? यह तो छोटा सा जीव है। इसका सहारा कौन है अपने सिवा? हमने इसे पाल—पोसकर इतना बड़ा किया है अब इसकी बाकी जिंदगी भी अच्छी सेहत के साथ बीत जाए तो अपने मन को भी संतोष हो जाएगा। आप खुद ही सोचो न, क्या रिया बीमार पड़ती है तो क्या हम इसकी जगह दूसरी रिया लाने की बात सोचते हैं?
यह सुनकर धीरेंद्र को थोड़ी ग्लानि महसूस हुई। उसके मन में संध्या और रिया के ये शब्द बार—बार गूंजने लगे — क्या रिया बीमार पड़ती है तो क्या हम इसकी जगह दूसरी रिया लाने की बात सोचते हैं? पापा! ओजस कोई आब्जेक्ट नहीं है। उसकी हमारी जैसी जान है। वह तो बोलता तक नहीं है। अपने दर्द का इजहार तक नहीं कर सकता। हम उसकी सांसें छीनकर क्या हासिल कर लेंगे?
वह सोचने लगा— अपने प्रिय के लिए कुछ भी करने का जज्बा ही तो जिंदगी को नई गति देता है। अपनी फैमिली की तमाम मुश्किलों को दूर करना, फैमिली मेंबर्स के प्रति करुणा और प्यार भरा व्यवहार ही तो संजीवनी का काम करता है। यह मैं क्या कर रहा हूं? क्या मैं अपनी रिया के चेहरे पर मुस्कान नहीं देखना चाहता? क्या उसके चेहरे की मुस्कान के लिए मैं पांच—सात सौ रुपये खर्च नहीं कर सकता? नहीं, रुपये—पैसे के मुकाबले जान ज्यादा कीमती है! रिया के चेहरे पर मुस्कान कहीं अधिक कीमती है। मेरी पत्नी और रिया मिलकर ओजस की तीमारदारी में जिस तरह से जुटे हैं वह दिल को छू लेने वाला है। मैं कुछ ज्यादा ही रुपये—पैसे के बारे में सोचने लगा हूं। भगवान न करे कि रुपये—पैसे की चिंता इंसान पर इतनी हावी हो जाए कि वह इंसान कहलाने लायक ही नहीं रहे।
यह सब सोचकर वे भावुक हो गए और बेटी से बोले — रिया, चलो हमलोग ओजस को डाक्टर के पास ले चलते हैं। ताकि यह बाकी जिंदगी तो स्वस्थ्य रहकर बिता सके। पहले की तरह उछल—कूद करते हुए, प्यार—दुलार बांटते हुए, अपनी हरकतों से हम सबका मन मोहते हुए। यह सुनकर संध्या और रिया के चेहरे की सारी शिकन मिट गई और वे पापा के साथ ओजस को डाक्टर के पास ले जाने की तैयारियों में जुट गईं।
(काल्पनिक कहानी)