चैप्टर—4
इसके कुछ सेकेंड बाद ही उमाकांत की तबियत फिर से बिगड़ने लगी। वे जोर—जोर से हांफने लगे। सांस खींचने के लिए जोर लगाते दिखने लगे।
वे जोर—जोर से हांफने लगे। सांस खींचने के लिए जोर लगाते दिखने लगे। तब राजेश्वरी डॉक्टरों को बुलाने भागीं। पर होनी को कौन टाल सकता है कुछ ही देर मे उमाकांत ने दम तोड़ दिया। राजेश्वरी की आंखों से दुख का दरिया आंसुओं के रूप में फूट पड़ा। उन्होंने जोर—जोर से विलाप करते हुए अपनी चूड़ियां फोड़ लीं और आंचल में आंसुओं के दरिय को समेटने की कोशिश करने लगीं पर यह कोशिश नाकाम रही। वे जोर—जोर से हिचकियां लेते हुए बेहोश सी होने लगीं।
उनकी ऐसी हालत देखकर डॉक्टर राजीव मल्होत्रा पसीज गए। उन्होंने राजेश्वरी का मोबाइल फोन लेकर उसमें सेव उनके भतीजे सुवर्ण को फोन लगाया। सुवर्ण डॉक्टर से बातचीत होने के बाद अपने पापा भगीरथ और दो—तीन मित्रों को लेकर अस्पताल पहुंच गया। उसने पहले अपनी चाची जी की तबियत सुधारने के लिए डॉक्टरों से बातचीत की। जब उन्हें डॉक्टरों की दवाई से थोड़ा आराम हुआ तो उसने उमाकांत के शव को अस्पताल से घर ले जाकर उसके अंतिम संस्कार की तैयारियां शुरू कर दीं। उसने मनीष को उमाकांत के निधन की सूचना वॉइस मैसेज भेजकर दे दी। मनीष ने केवल ‘आई मिस यू पापा!’ का जवाबी मैसेज भेजकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली।
उमाकांत के निधन के बाद के तमाम रस्मो—रिवाज निपटाने के करीब 15 दिन बाद सुवर्ण अपने घर चला गया। राजेश्वरी अपने सूने चमन को फिर से पटरी पर लाने के लिए सक्रिय हो गईं। वे दिन—रात मनीष के बारे में सोचती रहतीं। उन्हें अक्सर भ्रम हो जाता कि मनीष मां —मां कहता हुआ दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। वे भागकर दरवाजे के पास पहुंचती। दरवाजा खोलतीं। पर जब मनीष वहां नहीं मिलता तो वे सुबकने लगतीं। ऐसे में पड़ोस के सुभान खां और जगदीश हरूरे उन्हें समझा—बुझाकर संभालने की कोशिश करते।
उधर, न्यूयार्क में मनीष की परेशानियां बढ़ने लगीं। पहले तो जिस फ्लैट में वह किराए पर रहता था उसके मालिक ने किसी बात पर नाराज होकर उसे फ्लैट छोड़ने को कह दिया। फिर एक दिन एक प्रोजेक्ट में रह गईं खामियों को लेकर उसकी अपने इमीडिएट बॉस एल एंडर्सन से बहस हो गई।
मनीष की परेशानियों के ताबूत में आखिरी कील उसकी असिस्टेंट कार्ला ने ठोक दी। उसने जब देखा कि मनीष की अपने बॉस से नहीं बन रही है, तो उसे समझ में आ गया कि आगे जाकर मनीष का क्या हश्र होने वाला है। अत: उसने मनीष से दूरी बनाने के लिए उस पर बदतमीजी के आरोप जड़ दिए। हर तरफ से मनीष की हार होने लगी। समय चक्र घूमा और मनीष की अगले महीने ही पूगल से नौकरी छूट गई और वह नई नौकरी की तलाश में एड़ियां रगड़ने लगा। करीब तीन महीने हो गए। उसे नौकरी नहीं मिलनी थी सो नहीं मिली।
ऐसे में उसे अपने घर की याद सताने लगी। उसने एक दिन बेहद घबराकर राजेश्वरी को फोन लगाया। राजेश्वरी ने देखा कि मनीष का फोन है तो वे समझ गईं कि अब शायद उंट के पहाड़ के नीचे आने के दिन आने वाले हैं। वे प्यार भरे सुर में बोलीं — और बेटा! कैसे याद आ गई?
मनीष — मां मैं तीन महीने से परेशान हूं। मेरी नौकरी छूट गई है। कार्ला भी दगा देकर अपने अमेरिकन लवर नील्सन के पाले में जा बैठी है। मां मेरा यहां कोई नहीं है! अब बताओ न मां, मैं क्या करूं?
राजेश्वरी — बेटा! तुम कहीं भी रहो, किसी भी हाल में रहो। इस घर के दरवाजे तुम्हारे लिए न तो बंद हुए हैं और न होंगे। तुमने आखिरी क्षणों में भले ही अपने पिता को याद नहीं किया पर वे दशरथ की तरह एक ही रट लगा रहे थे — मनीष, मनीष! तुम भले ही करियर के पीछे कितने ही निष्ठुर हो गए हो, लेकिन तुम्हारे पिता तुम्हें बेहद चाहते थे। उनका दिल तुम्हारे लिए बेहद कोमल था, बेटा! बेटा वे मरते—मरते तुम्हारे लिए एक संदेश—
मनीष — हां, हां बोलो, मां! क्या पिताजी मेरे लिए क्या संदेश दे गए थे?
क्रमश:
(काल्पनिक कहानी )