चैप्टर—3
अत: राजेश्वरी बेहद भर्राये गले से इतना कह सकीं — ठीक है बेटा! जैसा तुम्हें दिखाई दे, तुम करो! जैसा मुझे दिखाई देगा मैं करूंगी! पर बेटा मैं एक बात कहना चहूंगी कि तुम काबिल हो! तुम्हें नौकरी तो दूसरी मिल जाएगी पर जिस बाप ने तुम्हें इस मुकाम पर पहुंचाया, वह यदि चला गया तो दूसरा उनके जैसा बाप नहीं मिल पाएगा!
यह कहकर उन्होंने गहरी निराशा और गुस्से में भरकर फोन पटक दिया और भगवान से हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगीं। उन्हें दुख के इस दौर में प्राचीन भारतीय कहानियां याद आने लगीं। उन्हें श्रवण कुमार का किस्सा याद आया कि कैसे उसने अपने अंधे मां—बाप की खवाहिश पूरी करने के लिए उन्हें पैदल चलकर बहंगी में बिठाकर पूरे देश के तीर्थों की सैर कराई थी। उन्हें प्रभु श्री राम का वह प्रसंग याद आया जब उन्हें मरणासन्न दशरथ को छोड़कर उनके ही वचन को पूरा करने के लिए वन में चौदह वर्ष तक निवास करना पड़ा था।
उन्हें लगा कि आजकल की पीढ़ी में कितना बदलाव आ गया है। वह बचपन में जिन मां—बाप की अंगुली पकड़कर हौले—हौले चलना सीखती है, जवानी आने पर वही मां—बाप को दरकिनार कर अपने करियर के लिए रिश्ते—नातों सबकी कुर्बानी दे देती है।
राजेश्वरी यह नहीं समझ पा रही थीं कि जब मनीष बेहद इंटेलिजेंट है और उस पर गूगल में नौकरी करने का ठप्पा लग चुका है। ऐसे में यदि वह अपनी पिता की देखभाल के लिए नौकरी छोड़ देता है तो क्या उसे दूसरी कंपनी ठुकरा देगी? क्या नौकरी के आगे मां—बाप की कोई वैल्यू नहीं? क्या उनके प्रति बच्चों का कोई फर्ज नहीं?
वे अस्पताल में वेंटिलेटर पर लेटे अपने पति को पहले तो कुछ देर निहारती रहीं। उन्हें उमाकांत के साथ बिताए पुराने पल याद आने लगे। उन्हें याद आया कि जब उनकी नई—नई शादी हुई तो कैसे वे अपने पति के साथ कश्मीर घूमने—फिरने गई थीं। उन्हें वे पल याद आए जब उन्होंने मनीष की किलकारियां पहली बार सुनी थीं और तब उनकी और उमाकांत की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा था। फिर उनकी आंखों के सामने मनीष के खेलने—कूदने के दिनों से लेकर अपनी पढ़ाई पूरी करने तक हुईं तमाम खट्टी—मीठी यादों के दृश्य घूम गए।
वे इन्हीं सब बातों पर चिंतन—मनन करती हुईं अस्पताल की बेंच पर कब सो गईं उन्हें पता ही नहीं चला।
अगली सुबह उम्मीद की नई किरण जगी। उमाकांत की हालत में थोड़ा सुधार दिखा। डॉक्टरों ने कुछ देर के लिए उन्हें वेंटिलेटर से हटा दिया। उन्होंने नाश्ते में दो बिस्किट लिए और थोड़ी चाय भी पी। फिर उन्होंने मनीष के बारे में पूछा— वह आएगा क्या?
राजेश्वरी ने सिर ऐसे हिलाया उमाकांत समझ गए कि मनीष का आना मुश्किल ही है। वे अपने कलेजे पर हाथ रखकर अस्फुट स्वर में बोले — कोई बात नहीं। उसे अपना काम करने दो। तुम तो बस इतना करना कि जब उसको जरूरत हो मेरी आधी दौलत उसे दे देना! इतना कहकर वे मौन हो गए।
राजेश्वरी कुछ घबराईं। वे बोलीं— हां, मनीष के पापा मैं ऐसा ही करूंगी!
इसके कुछ सेकेंड बाद ही उमाकांत की तबियत फिर से बिगड़ने लगी। वे जोर—जोर से हांफने लगे। सांस खींचने के लिए जोर लगाते दिखने लगे।
क्रमश:
(काल्पनिक कहानी)