ना हो नैनों से प्रियतम ओझल
क्यों अपने ही सुख में डूबा,
चिर निरंतर ये मन चंचल,
बस सपनों में खोया रहता,
हंसता खिलखिलाता पल पल।
मधुर स्मृतियों में डूबा रहता,
करता रहता मन ये व्याकुल,
सपनों में सैर करे उपवन की,
ले ले स्नेहिल सुमन करतल।
उर आतुर सुन वाणी मृदुल,
दृग पुलिनों पर आंसू छल छल,
पिया मिलन को ये मन विह्वल,
सरक सरक गिरता ये आंचल।
धावक पग करे चहल पहल,
आतुर आलिंगन बढ़ता प्रतिपल,
उठ उठ गिर गिर सहज सरल,
ना हो नैनों से प्रियतम ओझल।
- कविता साव, (पश्चिम बंगाल )
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दोहे तरुण के
सागर जैसे हैं नयन, चंदा जैसा रूप।
स्वभाव गोरी का बना,शीतकाल की धूप।।
पहली ही बरसात में, दरके बड़े पहाड़।
सहन नहीं शायद इसे,नीरद करे दहाड़।।
हुई झमाझम रात को,आंगन में बरसात।
मुरझाए मुखड़े खिले,आई ज्यों बारात।।
पवन वेग से उड़ रही, मिडिया में अफवाह।
स्वार्थ पूर्ति का लक्ष्य है, भूले नैतिक राह।।
सांसों की माला जपो,मन में जिसका वास।
आडंबर को त्याग दो,हो जीवन मधुमास।।
नाले सारे उफनते,सरिता सारी मौन।
अट्टहास सागर करे,मेरी सुनता कौन।।
खतरे में है जिंदगी,उगी जहर की बेल।
सावधान रहना सभी,बिगड़ न जाए #खेल।।
श्याम मेघ घनघोर है, करते हैं भयभीत।
नृत्य करे मन मोर तरुण,घर आओ मन मीत।।
बच्चे भूखे नेह के,प्यारे से चितचोर।
माना मस्ती खोर पर,लगे हुई ज्यों भोर।।
झूला सावन में पड़ा, गोरी गाती गीत।
विरह अगन भड़की बड़ी,घर आओ मन मीत।।
- पंकज शर्मा “तरुण “,(म. प्र.)
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जीवन जीना सरल नहीं
जीवन जीना सरल नहीं
गीत चले हृदय के तट से
सुर चले अधरों पे आके
अब कौन सुनाए राग प्रेम का,
पीड़ा जो गान प्रेम का…
है कहाँ मेरा प्रियें,
दे गया जो मुझे उलझन
है जीवन जीना, इतना सरल नहीं
जितना है इसमें, गरल कहीं
कितने रोके आँसू नैन में
कितने व्याकुल हुए ये मन
क्या जाने वो, परदेस में जाकर
बेरंग हुए जो मेरे तन..
उसका अब कोई संदेश नहीं
कैसे बीते दिन ऐसे दुःख में
कैसे रह रही अकेली मैं..
वो जानता नहीं कैसी हूँ…
- मनोज कुमार, ( उत्तर प्रदेश)
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धड़कन बोले है क्या? ये सुनलो पिया
आस तुमसे लगी, साँस तुमसे बंधी
न मिले तो ये नब्ज़, जम जाएगी
बिना तेरे, मेरी साँस थम जाएगी
तेरी भी कुछ सीमा है, मेरे भी हैं दायरे
भरोसा रख मुहब्बत पर, मिट जाएंगे फ़ाँसले
घटा में छिपके चाँद फ़ना नहीं होता
बदलों में कहाँ है सूरत रुकता
हेराँ तो वो कते हैं,
जो ख़ामोषी से चलते हैं।
पत्थर कहे उन्हें दुनिया,
पत्थर ही तराषे जाते हैं।
उनको न भाये अंजुमन,
वो ओट में दीप रखते हैं।
सजती है ख़ामोषी जिनके होंठों पे,
दिल में तूफ़ा रखते हैं।
ख़ुद से है उनकी मोसखी,
लबों पे मिश्री, ज़हन में इतिहास रखते हैं।
बेख़बर होना सबके बस की बात नहीं
सबको, अपनी छोड़ सबकी ख़बर होती है।
सब्र सब में हो ये भी कोई बात नहीं
सबको अपनी औक़ात पता होती है।
यूँ देखो तो आयतों में कोई बात नहीं
रब की नेमत भी बेख़ुदी में होती है।
कहने को कई बार, कुछ नहीं होता
और कभी . . .
बिन कहे काँच सी चुभन होती है।
- हेमन्त पटेल, (म. प्र.)
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