(अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च पर विशेष प्रस्तुति)
रचनाकार : उत्तम कुमार तिवारी “उत्तम”, लखनऊ
चैप्टर-1
यह विषय बहुत ही मार्मिक हैं कि नारी क्या हैद्य इसके कितने रूप हैं। जब वह जन्म लेती हैं तो जन्म कुंडली में लिखा जाता हैं कि कन्या रत्नं जायते यानी कि रत्न रूपी कन्या का जन्म हुआ हैं। जैसे जैसे वह बड़ी होती जाती हैं वैसे वैसे उसको देवी के रूप मे जाना और माना जाता है। फिर वह भाई की बहन हो जाती हैं। उसका यौवन काल शुरू भी नही हो पाता हैं कि वह घर की ज़िम्मेदारिंयों को समझने लगती हैं और अपनी माँ का दाहिंना हाथ हो जाती हैं।
माँ के हर काम में हाथ बंटाने लगती हैं। फिर वह धीरे धीरे माँ की अग्रणी हो जाती हैं। जब वह पूर्ण रूप से यौवन अवस्था में आ जाती हैं तो वह घर की पूरी ज़िम्मेदारी उठाने में पारंगत हो जाती हैं। जब कोई रिश्तेदार घर में आ जाता हैं तो माँ उनके पास बैठती हैं और बिटिया नाश्ता पानी खुद लगाती हैं। तब माँ बडे गर्व से कहती हैं कि जबसे बिटिया सयानी हो गई हैं तब से हमको बहुत आराम हो गया हैं। अब पूरा घर बिटिया संभालती हैं।
जब भी माँ बाजार जाती हैं तो वही बिटिया जो कल तक माँ की उंगली पकड कर चलती थी वो आज आगे आगे चलती हैं और माँ पीछे पीछे चलती हैं। अब हर चीज में बिटिया की मर्जी चलती हैं। माँ ये कहती हैं कि बिटिया से पूछ ले क्योंकि वही घर की ज़िम्मेदार होती हैं।
रसोई घर की सामग्री से लेकर घर की साज सज्जा ,वस्त्र , आभूषण तक में बिटिया की ही पसंद चलती हैं। माँ की पूर्ण रूप से देखरेख] पिता की देखरेख] अपने से छोटे भाई बहन की देखरेख] सब कुछ उसकी ज़िम्मेदारी हो ज़ाती हैं और वह इन सब ज़िम्मेदारियों को बहुत निपुता के साथ निभाती हैं और सबके ऊपर अनुशासन भी बनाए रखती हैं।
ये सब करते करते पता नही चलता हैं कि वह कब विवाह के योग्य हो गई हैं। तब भी माँ को इस बात की चिंता सताती रहती हैं कि बिटिया के बाद घर कौन सभालेगा द्य अब उसका विवाह का समय आ गया हैं। उसमें भी बिटिया की ही मर्जी चलती हैं कि बिटिया को लड़का पसंद हैं कि नही।
सारी वस्तुआंs की खरीददारी में भी बिटिया की ही पसंद चलती हैं। उसमें भी बिटिया अपनी ज़िम्मेदारी को निभाती हैं कि मेरे माता-पिता के पास कितना पैसा हैं। उससे भी कम मंे खरीददारी करती हैं। उसको ये समझ रहती हैं कि अभी आगे बहुत खर्चा है। हाथ समेट कर चलना हैं। बिटिया कभी भी अपने माता-पिता से ज़िद्द नही करती ह पुत्र अवश्य करता है। । अब उसका विवाह सम्पनं होता है। तो बिटिया का गोत्र दान पिता करता हैं। ये अपभरंस्ता हैं कि कन्या दान पिता करता है।
कन्या कोई दान की वस्तु नहीं होती हैं और न ही हैं। जब एक माता पिता अपनी पुत्री का गोत्र दान करता हैं तो वह बहुत रोता हैं आज से ये मेरे गोत्र की नही रह गई। जिसको हमने अपनी पलक पावडे बिछा कर पाला पोसा अब बिटिया दुसरे गोत्र की हो गई। मेरा सम्पूर्ण अधिकार आज से समाप्त हो गया।
ये था नारी का एक बिटिया का स्वरूप!
अब देखिये एक नारी का स्वरूप पुत्रवधू के रूप में!
जब एक पुत्री का पुत्रवधू के रूप में जब अपने ससुराल पहुंचती हैं तो उसका स्वागत एक नारी सास के रूप में करती हैं। उसका वर्णन श्री गोस्वामी तुलसी दास जी ने बहुत ही कालज़यी शब्दो मे किया हैं — जो इस प्रकार हैं
-सिर्फ यह एक विषय नहीं है एक माँ के उर प्रेम की परिभाषा है। एक माँ के सपनों का संसार है जो आज उसकी पूर्ति का समय है।
सास बहू संबंध :
स्त्री के लिए पुत्रवधू आगमन से बड़ा कोई उत्सव नहीं होता।
बधुन्ह समेत देखि सुत चारी।
परमानंद मगन महतारी।।
(क्रमशः )