आखिरी चैप्टर
हिंदू वैदिक संस्कृति में स्त्री को पुरुष की अर्धांगिनी एवं सहधर्मिणी कहा जाता है अर्थात जिसके बिना पुरुष अधूरा हो तथा सहधर्मिणी अर्थात जो धर्म के मार्ग पर साथ चले। इस विषय में यहाँ पर इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है कि भारतीय संस्कृति में पुरुष बिना पत्नी के कोई भी धार्मिक अनुष्ठान नहीं कर सकते। रामायण में भी संदर्भ उल्लिखित है कि जब श्रीराम चन्द्र जी को अश्वमेध यज्ञ करना था और सीता माता वन में थीं तो अनुष्ठान में सपत्नीक विराजमान होने के लिए उन्हें सीता माता की स्वर्ण मूर्ति बनवानी पड़ी थी।
मानव जाति का अस्तित्व नारी के बिना होना असंभव ही नहीं बल्कि कल्पना के परे से है। मानव जाति के जीवन का अस्तित्व पूर्ण रूप से नारी और पुरूष की समान योगदान से अब तक परिपूर्ण है। अन्यथा एक के बिना भी जीवन का अस्तित्व नामुमकिन है। कुछ धर्मग्रंथों में चाहे कितनी भी नारियों की उपेक्षित स्थिति बताई गई हो परन्तु सच्चाई तो यही है कि मानव जीवन की विकास के लिए नारी ही उत्तरदायी है। अर्थात मानव जीवन के संपूर्णता एवं अस्तित्व को बनाए रखने हेतु नारी की सर्वोच्च स्थान है। नारी चाहे स्वतंत्र हो या पराधीन परन्तु मानव के अस्तित्व को बनाए रखने हेतु जितना पुरूष का उत्तरदायित्व है उससे बढ़कर नारी का उच्च और सराहनीय योगदान है। अतः पुरूष और नारी एक-दूसरे के पूरक है एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती यही एक मात्र सच्चाई है जो मानव जीवन के अस्तित्व को बनाये रखने में महत्वपूर्ण और अटूट कड़ी है।
भारतीय समाज एवं जीवन पद्धति में स्त्री को भगवान की सर्वोत्कृष्ट कृति के रूप में स्वीकार किया गया है। इसका कारण यह नहीं कि वह शारीरिक, चारित्रिक या मानसिक अथवा सुंदरता की दृष्टि से अधिक आकर्षक होती है, वरन स्त्री का सृष्टि की सर्वोत्तम कृति होने का कारण उसमें मातृत्व है] जो उसे महिमा प्रदान करता है। अतः एक भारतीय अथवा वैदिक हिंदू परंपरा में स्त्री के मातृत्व के गुण को सर्वोच्च स्थान दिया गया है] जो सृष्टि की निर्माता है और मानवीय गुणों की व्याख्याता और प्रदाता है। हमारी सनातन हिंदू संस्कृति का उद्घोष है मातृ देवो भवः -अर्थात मां इष्ट देव है, क्योंकि वह जीवन प्रदायनी है। स्मृति कहती है-
उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता।
सहस्त्रं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते॥
अर्थात एक आचार्य] दस उपाध्यायों से श्रेष्ठ है। एक पिता सौ आचार्यों से श्रेष्ठ है एवं एक माता सहस्र पिताओं से भी बढ़कर वंदनीय है। अतः हिंदू संस्कृति कहती है- मातृ देवो भवः, तत्पश्चात पितृ देवो भवः एवं आचार्य देवो भवः- यद्यपि मां सर्वाधिक छोटा शब्द है। किंतु यही शब्द सृष्टि और संसार का कारणभूत है।
अंग्रेजी में मां को ‘मदर’ कहा गया है, इस ‘मदर’ शब्द में से यदि ‘एम’ निकाल दिया जाए तो बाकी सब ‘अदर’ है। इसलिए मां की महिमा का बखान नहीं किया जा सकता।
गुजराती कवि श्री गौरी प्रसाद झाला की कविता की बड़ी सुंदर पंक्तियां हैं-
हिमालय नूं गांभीर्य अब्जो नी सकुमारता
वसी माता तणै हैये सागरों नी अगाधता।
अर्थात- हिमालय जैसी गंभीरता और ऊंचाई, फूलों की सुकुमारता] हे मां तुम्हारे चरणों में सागर जैसी अगाधता बसती है। मां की महिमा शब्दातीत है। इसका कारण यह है कि मां ही एक ऐसी स्नेह और ममत्व प्रदान करने वाली देवी है, जो व्यक्ति को जन्म से लेकर शैशव, बाल्य, यौवन एवं प्रौढ़ावस्था तक समान रूप से अपना वात्सल्य प्रदान करती है।
॥ माता समं नास्ति शरीरपोषणम् ॥
इस प्रकार भारतीय संस्कृति, आचार-विचार तथा व्यवहार में स्त्री को मातृ शक्ति के रूप में स्वीकार करती है तथा उसे सर्वोच्च सम्मान प्रदान करती है। आधुनिक मानस तथा समाज शास्त्र भी यह स्वीकार करता है कि समाज के निर्माण में स्त्रियों की माता के रूप में बहुत बड़ी भूमिका होती है क्योंकि मां न केवल जन्मदात्री है, बल्कि वह अपनी संतति को संस्कार तथा व्यवहार भी प्रदान करती है, जो आगे चलकर समाज का नेतृत्व करते हैं।