रचनाकार: पलक नेमा, मुंबई
दोस्ती का छल्ला
दिन ढलने को था और डूबते सूरज के साथ मेरा मन भी डूबा जा रहा था। , आज पहली दफा लग रहा था की खुद से बात कर के भी कुछ अनसुना कुछ अनकहा सा बाकी रह गया था।
अपने कमरे की बालकनी में खड़े कुछ पुराने लम्हों को जी रही थी। कैसे एक शहर से दूसरे शहर फिर दूसरे शहर से तीसरे शहर हुए तबादले सिर्फ घर के दरवाज़े और दीवारें ही नहीं मन का भी तख्ता पलट देते थे।
घुलना मिलना नए दोस्त बनाना मुझे ना कभी आया और शायद कभी भाया भी नहीं और जिन्हें बना लिया उनका पीछे छूटना इतने अंदर तक घर कर गया की मैं फिर कब खुद की ही दोस्त बन गई पता ही नहीं चला।
मगर कभी शिकायतें नहीं रही उन तबादलों से और ना ही इन बदलते शहरों से। शिकायतें करना, रूठना, मनाना शायद ये उन लोगों के शब्दकोश में ही नहीं आता जो खुद के दोस्त होते हैं।
तो फिर आज मैं खुद से बात करते हुए संतुष्ट क्यों नहीं हूँ , क्यों आज खुद को खुद के साथ नहीं पा रही हूँ। मीलों की दूरी थी जो मेरी शिकायतों से वो मुझे आज पास आती क्यों नज़र आ रही हैं ??
खुद को खंगालने में वक़्त ज़ाया करने के बाद अपने फ़ोन को खंगालना चाहा , कांटैक्ट लिस्ट खाली नहीं थी मेरे फ़ोन की। ढेरों नॅम्बर सेव थे नाम के साथ और सिर्फ नाम ही नहीं उन सबके नाम के पीछे सबकी अलग-अलग पहचान .. असल में पहचान नहीं, वो स्थान जहाँ मैं इन सबसे मिली थी , या यूँ कह ले जहाँ से हमारी वो ज़्यादा दूर तक ना चलने वाली दोस्ती शुरू हुई थी।
अब यादों के कई बक्से मेरे आगे खुल चुके थे , हर वो स्थान हर वो शख्स सब बखूबी आज भी ज़ेहन में थे। यादें कभी बासी नहीं होती हैं भले ही स्वाद को हम कोई भी नाम देदें मीठा या कड़वा आखिर तक ये वही स्वाद में बनी रहती हैं। यही तो यादों की खासियत होती है।
खैर वो सब मेरे फ़ोन , मेरी यादों और मेरे दिल में ही कैद रह गए , जिंदगी आगे बढ़ती गयी और वो दोस्ती का छल्ला रास्ते में ही कहीं गिर गया।
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