रचनाकारः दिविक रमेश, नोएडा
मुझे घर पहुँचना था
मुझे घर पहुँचना था
मैंने एक रास्ता पकड़ा
और घर पहुँच गया।
मुझे घर पहुँचना था
मैंने दूसरा रास्ता पकड़ा
और घर पहुँच गया।
मुझे घर पहुँचना था
मैंने तीसरा रास्ता पकड़ा
और घर पहुँच गया।
मुझे घर पहुँचना था
मैंने चौथा रास्ता पकड़ा
और घर पहुँच गया।
मुझे घर पहुँचना था
मैंने आखिरी रास्ता पकड़ा
और घर पहुँच गया।
देख रहा हूँ घर की चौखट से
मरकट रहे हैं वे
रास्तों की बहस में,
बहस से जबकि
गायब है सिरे से
मेरा घर पहुँचना।
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किसी की भी माँ
माँ
वह भी उतनी ही है
जितनी मेरी।
वह माँ है
मेरे बच्चों की।
वह उतना ही करती है प्यार
और बचाती भी है अपने बच्चों को
जितना
मेरी माँ
हम बच्चों को
हर बला से।
पर
जब मैं सोच रह होता हूँ
माँ को
कर रहा होता हूँ प्रशंसा
माँ की
तो प्रायः
जाने कहाँ छूट जाती है पीछे
माँ
मेरे बच्चों की।
चाहिए तो यही न
जब सोचूँ माँ को
करूँ प्रशंसा माँ की
तो हर माँ आए दायरे में–
वह मेरी माँ हो
या हो किसी की भी!
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जो मरे थे, मनुष्य थे
तुमने उन्हें मारवाया
उनकी बोटी-बोटी नोच कर
तुमने उन्हें मरवाया।
पूछा तो बताया
वे दुश्मन थे।
तुमने जश्न मनाया।
उसने भी मरवाया
उसी तरह क्रूर होकर
उसने भी मरवाया।
पूछा तो
जवाब भी वही था-
दुश्मन थे।
जश्न भी मनाया।
जो मरे थे
मनुष्य थे,
यह कभी नहीं समझना चाहा
सुरक्षा के सुदृढ़-बेशकीमती घेरों में
सुरक्षित
अपने-अपने
प्रजातंत्र की पताकाएँ फहराते
आकाओं ने।
राजाओं का विरोधी होकर भी
जाने क्यों याद कर रहा हूँ उन्हें
जाने क्यों याद कर रहा हूँ उन्हें
उनकी तमाम गन्दगी के बीच-
जाने क्यों याद कर रहा हूँ–
अपने लोगों के साथ
उनका कंधे से कंधा मिलाकर लड़ना
और मरना ।
बचने पर
अशोक बन जाना।