चैप्टर – 1
कोमल सिंह — बेटा! तुम्हें अपनी जिम्मेदारी समझना है। तुम्हारा बेटा रतन कितना भी बड़ा हो गया हो पर मेरी नजरों में वह बच्चा ही है। रही बात बेटी रागिनी की तो वह तो खिलता हुआ फूल है। तुम्हें उसे मुरझाने नहीं देना है। बेटा! मेरी सलाह मानो। कुछ दिन ये नॉवेल—वॉवेल लिखने का शौक छोड़ दो। जो ससुराल वाले कहे करती जाओ। वैसे भी क्या होगा, नॉवेल लिखने से? अब हर कोई लेडीज तो अरुंधति राय बन नहीं सकती कि बस किताब लिखी और नाम के दम पर बिक जाए। मौजूदा हालात में मेरी सलाह तो यही रहेगी कि तुम घर—गृहस्थी के काम में मन लगाओ।
अपने पिता कोमल सिंह की फोन पर ऐसी कठोर बातें सुनकर स्मिता की आशाओं पर मानो बिजली गिर गयी हो। उसे लग रहा था कि पिताजी उसके घावों पर मरहम लगाएंगे पर यहां तो उल्टा ही हो गया।
स्मिता — पापा! मैं पिछले बीस साल से और क्या कर रही हूं? घर—गृहस्थी के चक्कर में फंसकर मेरी जिंदगी बर्बाद हुई जा रही है। घर में कोई सहयोग करता ही नहीं। रागिनी दिनभर लैपटॉप लेकर बैठी रहती है। यह नहीं होता कि घर के काम—काज से थकी—हारी मम्मी के काम में कुछ हाथ बंटा दे। रतन दिनभर जॉब ढूंढ़ने के जॉब में लगा रहता है और शाम को थका—हारा आता है और कहता है मम्मी! बस कुछ दिन और इंतजार करना होगा। फिर देखना मेरी ऐसी जॉब लगेगी कि लोग देखते रह जाएंगे। इन्हें एक्सरसाइज और आफिस के अलावा कुछ नहीं सूझता। ये सुबह 6 बजे उठकर जिम चले जाते हैं। फिर देर रात तक आफिस से घर आते हैं। कभी—कभी तो आफिस का काम भी घर पर ले आते हैं। बस, मैं यूं ही फंसकर रह गई हूं। मैंने दो साल का राइटिंग स्किल का कोर्स किया है। उसका क्या नतीजा निकला? बस, सुबह से देर रात तक कोल्हू के बैल की तरह घर—गृहस्थी संभालने में लगे रहो। न मैं आगे बढ़ पा रही हूं और न ही कुछ क्रिएटिव काम कर पा रही हूं। फिर आए दिन रिश्तेदारों को संभालो, वो अलग! स्मिता की ऐसी बातें सुनकर उसके पिता बोले ।
कोमल सिंह — बेटा! तुम्हारी अम्मां शशिकला कितनी समर्पित गृहस्थन थीं। वे सुबह से लेकर आधी रात तक घर के काम—काज में भिड़ी रहती थीं। तुम्हें वैसा ही बनना है। मैं मानता हूं कि तुम में प्रतिभा है। पर विवाह के बाद बेटा पति,उसका घर,वहां के रीति—रिवाज, रिश्तेदार आदि को निभाना ही पड़ता है। मैं नहीं चाहता कि कल मेरे दामाद विनायक की तरफ से शिकायत सुनने को मिले कि आपने अपनी बेटी को कुछ सिखाया ही नहीं?
अब तो स्मिता का सब्र का बांध टूट गया। उसके मन में दबा आक्रोश फूट पड़ा। वह लगभग रोते—रोते बोली ।
स्मिता — पापा! घर गृहस्थी के जंजाल में उलझकर अम्मां ने अपनी जिंदगी बर्बाद कर ली थी। आपको याद है कि वे इसी घरेलू काम—काज के बोझ के तले दबकर अपनी जिंदगी गंवा बैठी थीं। मैं वह दिन कैसे भूल सकती हूं जब वे भाग—भाग कर किचन का काम करते हुए फिसल पड़ी थीं और उनके पैर में फ्रैक्चर हो गया था। तब मैं टीनएजर थी। उन्होंने अपने आपको घर—गृहस्थी में इतना खपा लिया था कि अस्पताल में तीन माह बिताने के बाद जब घर आईं तो अपने फ्रैक्चर को भूल गईं थीं और दवाइयां वगैरह लेने में लापरवाही करती रहीं। नतीजा क्या हुआ? हड्डियां ठीक से जुड़ नहीं पाईं और टूटी हड्डी के कारण पैर में ठीक नहीं होने वाला घाव बन गया और उसी घाव ने सड़कर उनकी जान ले ली। मुझे ऐसा नहीं बनना है पापा! केवल चूल्हे—चक्की के चक्कर में फसकर अपनी जिंदगी बर्बाद नहीं करनी है।
क्रमशः (काल्पनिक कहानी )