चैप्टर -1
अचला — उफ! ये गांव है या मुसीबत! चारों तरफ झुग्गियां ही झुग्गियां! फटे—पुराने, मैले—कुचैले कपड़े पहने जेंट्स व लेडीज! कहीं भैंस ने गोबर कर रखा है तो कहीं कचरे का ढेर लगा हुआ है। तुम्हें ऐसी जगह अस्पताल खोलने की क्यों सूझी, डियर? क्या मिलेगा यहां? अपनी पत्नी अचला की ऐसी गुस्से भरी बातें सुनकर डॉक्टर सुधीर नागर भी झुंझला गए।
डॉक्टर साहब — तुम चूंकि शुरू से ही इंदौर जैसे शहर के माहौल पली—बढ़ी हो अचला! इसलिए तुम गांव वालों की तकलीफें क्या जानो। यहां की गलियों में तो मेरा बचपन बीता है। इन्हीं गलियों की धूल—मिट्टी में मैं पला—बढ़ा हूं। मेरे ताऊजी रमाशंकर नागर ने मुझे यहीं पांचवीं कक्षा तक पढ़ाया था। इसके बाद मैं अपने पिताजी रजनीकांत के साथ बिहार के पटना चला गया था आगे की पढ़ाई करने के लिए। वे भी क्या दिन थे! डॉक्टर सुधीर ने अपनी भावनाओं पर काबू करते हुए अचला को समझाइश देने की कोशिश की।
अचला — डॉक्टर साहब! नाराज मत होना। अब पिछले दो साल से मेरे जीवन की डोर आपके हाथों में है। आपको जहां अस्पताल खोलना है खोलिए। मैंने तो आपके पीछे—पीछे चलने की कसम खाई है। हां, इतना जरूर है कि मैं आपसे पूरी स्टोरी जानना चाहूंगी कि आप पटना जैसे शहर को छोड़कर धनबाद जिले के एक पिछड़े ग्राम काशीपुर में अस्पताल खोलने को क्यों प्रेरित हुए?
डॉक्टर साहब — अचला यह एक लंबी कहानी है। चलो! पहले गांव घूमते हैं।
अस्पताल खोलने से पहले काशीपुर का जायजा लेने उस दोपहर डॉक्टर सुधीर पैदल ही अचला के साथ निकल पड़े। अचला ने उनका हाथ थाम रखा था। वे एक डिब्बे नुमा इमारत के पास जाकर रुक गए। इसके बाद डॉक्टर सुधीर ने अचला को बताना शुरू किया।
डॉक्टर साहब — मैडम, यह है मेरा स्कूल— काशीपुर प्राथमिक विद्यालय। यहां मैंने पांचवीं तक पढ़ाई की थी आज से कोई छब्बीस साल पहले। तब इस स्कूल में दो टीचर थे — राधेश्याम तिवारी और भुवनेश केवट। राधेश्याम तो हर रोज पंद्रह किलोमीटर दूर स्थित राजपुर गांव से यहां पढ़ाने आते थे तो केवटजी पांच किलोमीटर दूर चंदनक्यारी कस्बे से आते थे। गांव की पढ़ाई पूरी तरह से रट्टामार थी। हमारे टीचर हमसे अच्छे संबंध रखते थे क्योंकि हमारे पूर्वज और ताऊजी गांव के सबसे संपन्न तथा प्रभावशाली परिवारों में शरीक थे। टीचर हमारा पूरी तरह से खयाल रखते थे और हम टीचरों का। हमलोग उनके लिए सब्जी—भाजी लाने, रोटी आदि की व्यवस्था करने में भिड़े रहते थे। ताउजी और उनकी पत्नी गीता देवी यदा—कदा टीचरों को खाने पर बुलाती रहती थीं। गुरुकृपा से हमारा रिजल्ट अच्छा ही होता था।
अचला — पर आप बचपन में पटना से इधर क्यों आए? अचला ने काफी देर से मन में कुलबुलाते सवाल को डॉक्टर नागर की तरफ उछाल दिया।
डॉक्टर साहब — अचला तुम्हें तो मालूम है कि मेरी मां का एक सड़क दुर्घटना में बचपन में ही निधन हो गया था। तब मैं केवल एक साल का था। पिताजी को मेरे दो भाइयों — अधीर और अमन तथा एक बहन सुमेधा को भी पालना था। ये तीनों मेरे से काफी बड़े थे। मैं अबोध बालक था। मुझे मां जैसी किसी ममता की छांव की सख्त जरूरत थी। ऐसे में मेरे निस्संतान ताऊजी तथा ताईजी मुझे इस गांव में ले आए और अपना बेटा मानकर मेरा लालन—पालन करने लगे।
अचला — अच्छा? तुम्हारी स्टोरी काफी इंटरेस्टिंग लग रही है। आगे बताओ ना!
अचला ने स्कूल के सामने लगे बरगद की छांव तले बैठते हुए कहा। डॉक्टर नागर भी उसके पास बैठ गए। इसके बाद उन्होंने बताया ।
डॉक्टर साहब — अचला, मैं बचपन में बहुत बीमार रहता था। ताऊजी और ताईजी मेरा बहुत खयाल रखते थे। मेरे बीमार होने पर बड़े—बुजुर्ग जो भी जड़ी—बूटी इलाज के लिए उपयोगी बताते थे, उसे पाने के लिए वे रात—दिन एक कर देते थे। गांव का एक ऐेसा ही अनुभवी बुजुर्ग था — जमना अहिरवार। वह मुझे बुखार होने या सर्दी—जुकाम होने पर ऐसे—ऐसे काढ़े सुझाता था कि बीमारी तीन—चार दिन में ही ठीक हो जाती थी। पर एक बार…
अचला — क्या हुआ? रुक क्यों गए? अचला ने हैरानी से पूछा।
क्रमशः (काल्पनिक कहानी )