चैप्टर—1
हम बड़े खुशनसीब हैं जो सरकारी जमीन को अपना मानकर उसमें चार बांस, कुछ फूस और खपच्चियों को जुटाकर एक झोप्ड़ी बनाने में कामयाब हो सके है। यद्यपि बीते इतिहास में अढ़ाई दिन का झोपड़ा की हिम्मत तो केवल बादशाह ही जुटा पाते थे। तथापि झोंपड़ा, झोंपड़ी, कुटि, घर, फ्लैट आदि की कल्पना को मूर्त रूप देने के प्रयासों की लंबी परंपरा आर्य ग्रंथों, महाकाव्यों आदि से लेकर आजकल के फिल्मी गीतो में स्थान पाती रही है। मुझे तरस आता है उन लैला—मजनुंओं पर जो छोटा सा एक घर हो अपना का सपना देखने के जुर्म में दीवारों में चिनवा दिए गए।
बस यही सब विचार मन को आनंदित कर रहे थे और अपने राम उस रात अपनी झोपड़ी में निद्रादेवी के आह्वान में लगे थे। बाहर बरसात हो रही थी। झोपड़ी की कच्ची छत से टपकता जल हमारा महामस्तकाभिषेक कर रहा था। इससे प्राप्त शीतलता से हमारी आंखें बंद होने लगीं। और हम सपनों की दुनिया में पहुंच गए। वहां जाकर हमने देखा कि हिंदुस्तान के ढेरों जाने—अनजाने कवियों और कवित्रियों ने हमारी झोपड़ी में डेरा जमा रखा है। वे देश के नाना स्थानों से आए हुए हैं।
वे बहुत बैचेन दिख रहे हैं और अपनी—अपनी कविताएं सुनाने के लिए श्रोताओं को ढूूंढ़ रहे हैं। इसी ढूंढ़ने के क्रम में उनकी नजर हमारी झोपड़ी और हम पर पड़ चुकी है और उन्हें जंच रहा है कि क्यों न एक मिडनाइट कवि सम्मेलन हमारी झोपड़ी में रख लिया जाए। हम संकोच में थे कि क्या किया जाए, क्या नहीं? हमने अपनी पैनी नजर से उन्हें पहचानने की कोशिश की।
कुछ तो चेहरे चित—परिचित लगे पर कुछ की मृखाकृति विराग तले होने के कारण स्पष्ट प्रतीत नहीं हो रही थी। हमने सबको मन ही मन प्रणाम किया।
तभी शैल चतुर्वेदी ने झोपड़ी की खामोशी तोड़ी और गला खकार कर बोले — काहे भाई काहे घबरा रहे हो? हम सब तुम्हरी झोपड़िया में परमानेंट रहने को तो नहिए आए हैं। बस, जरा कविता—सविता पढ़ेंगे काहे कि आजकल कौनो कामधंधा नहीं है और सरोता सब भी बरसात के मारे नदारत हैं। तब हमरी नजरिया गूगल बाबा से सरच करते समय तुम्हरी झोपड़िया पर पड़ी और हम सब धमक गए बस यही पर!
मैंने कहा — बहुत—बहुत शुक्रिया! मुझे नींद नहीं आ रही थी। हो सकता है कि आप सबों के कारण आ जाए। फिलहाल जब तक नींद नहीं आती तब तक क्यों न झोपड़ी, घर, फ्लैट वगैरह पर ही आप लोग अपनी—अपनी कविताएं सुनाएं!
बस हमारे यह कहने भर की देर थी कि सब कविगण एक साथ अपनी कविताएं पढ़ने लगे। शोर में कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। हमने अपने कानों में अंगुलियां डाल लीं और चिल्लाकर कहा — ऐसे नही, भाइयों! ऐसे नहीं। चलिए क्यों न आप सब अकारादिक्रम में अपनी कविताओं का पाठ बारी—बारी से करें।
सबको हमारी युक्ति पसंद आई।
क्रमश:
(काल्पनिक रचना )