आखिरी चैप्टर
खूब तालियां पिटीं। झोपड़ी में मच्छर भी ढेर सारे थे उनमें से कई इन तालियों के बीच फंसकर शहीद हो गए। वाह! वाह!! एकबार फिर की आवाजेें गूंजने लगीं। तभी एक कोने से प्रकट हुए मुजफ्फरनगर वाले श्रीमान भोंपू! छा गई चारों ओर शाति मानो होने वाली हो कोई क्रांति! भोंपू जी ने यह कविता बांची —
अरे भाई! क्यो इस दौर में झोपड़ी की बात कर रहे हो?
क्या महंगाई की बढ़ती रेखा को नहीं देख रहे हो?
अरे! इस दौर मेें झोंपड़ी बनाने में आता है खूब खरचा,
इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में भी होगा तुम्हार चरचा!
मान लो झोपड़ी खरीदने का है चक्कर
तो मेरा सवाल करेगा पहले तुम्हें निरुत्तर।
अरे, यह झोपड़ी सरकारी है या प्राइवेट?
नहीं है, बस में देना अपने दोनों के रेट।
यदि झोपड़ी ठेके पर बनी होगी
तो सबसे पहले अपने बीमे की जुगत करनी होगी।
यदि उसे बनवाया गया है किसी एमएलए के द्वारा
तो भेजा गुम नही हुआ है हमारा।
अरे! जो उसे खरीदेगा वो कहीं का नहीं रहेगा
उसमें रह नहीं पाएगा एक दिन भी
और बाकी समय तो उसकी रिपेयरिंग में कटेगा!
क्या कहने! क्या कविता है! रेट—वेट, प्राइवेट— व्राइवेट का क्या सेट है! आदि का कोलाहल होने लगा। इससे पहले कि प्रशंसा की अति हो पाती कि मैंने चेहरे पर भाव रहित पर कविता में ताव सहित उपस्थित रहने वाले मित्रवर सुरेंद्र शर्मा जी को आवाज दे डाली। तत्काल उनका काव्य पाठ शुरू हुआ —
चार लाइणा सुनाये रियो हूं
महलन के ख्बाव देख देख के
झोपड़ियो में दिन बिताये रियो हूं।
अरे भाया, जरा सी बात बता दे—
अरे! कब तक ये इ झोपड़ी
वहीं की वहीं पड़ी रहवेगी?
कब तक इसके सामणे
ये तिमंजिला इमारत ताण के
सीणा खड़ी रहवेगी?
इस कविता को सुनकर सबके चेहरे खिल उठे। तभी हमारी नजर दांतों के बीच जीभ सी फंसी सिकुड़कर बैठी हुई डॉ सरोजिनी प्रीतम पर पड़ी। देखा कि वे हमारी झोपडी के जालों में अपनी नजरें उलझा रही हैं। हमने उन्हें रोका और उनसे कविता पढ़ने की गुजारिश की। बस, वे तत्काल शुरू हो गईं—
चार दीवारें और छत
इससे बनता है घर,
अंदर बैठे लोग बातें करते हैं
फुसफुसाते हुए—
घर्र! घर्र!!
यह कविता सुनते ही सभी लोग मारे हर्षातिरेक के चिल्लाने लगे! हमारी झोपड़ी के बांस थर्राने लगे! तभी गूंजी एक धीर—गंभीर आवाज — काहे जी! सब तो कविता—सविता सुना चुके हैं, अब हमें नहीं सुनिएगा? तब सबकी नजरें शैल चतुर्वेदी की ओर घूम गईं। देखा कि वे बड़ी व्यग्रता से कविता को कुर्ते से बाहर निकालने मेें लगे हैं। मैंने कहा — लगता है कि कवि की व्यग्रता बढ़ रही है तो क्यों न उन्हें आखिरी मौका दे दिया जाए? सबने सहमति में सिर हिलाया। शैलजी बोले — हां, भाई! इससे पहले तुम्हें नींद आ जाए, हमारी एक छोटी सी कविता सुन लो! हमने कहा कि सुनाइए! बस वे शुरू हो गए —
मैं पीपल के तले खड़ा था
आकाश में घनघोर मेघ भी घिरा था
और लो बरसात शुरू हो गई
कुछ बूंदें मुझ पर भी पड़ गईं
तब मुझे याद आई
बुधुआ की झोपड़ी की टूटी छत
और उसकी कटी—फटी रजाई
वह कैसे सिकुड़कर उसे ओढ़कर
बारिश में बैठा रहता था
हाथ जोड़कर कैसे इंद्रदेव से
बारिश रोकने की गुहार करता था
उसी की तरह मैं तब
प्रार्थना कर रहा था
और खुद व बुधुआ में
कोई फर्क महसूस नहीं कर रहा था
कोई फर्क महसूस नहीं कर रहा था।
तब तक बरसात थम चुकी थी। मेरी झोपड़ी की छत बरसात के जोर से धसकने को हो रही थी। यह देखकर कवि वृंद बाहर की ओर भागे और इतने में मेरी आंख खुल गई।
(काल्पनिक रचना )