रचनाकार : सुशीला तिवारी, पश्चिम गांव,रायबरेली
झरने की सीख
झरना है श्रंगार प्रकृति का इसकी निर्मल जल धारा,
निर्झर गति से बहते रहना, बस ये ही उद्देश्य हमारा।
झरना कहता मुझसे सीखो ,हरदम चलते रहना ,
दृढ संकल्पित सदा रहो तुम,खुद ही खुद को गढ़ना।
अपनी राह स्वयं बनाओ गर मंजिल है तुमको पाना,
नित नयी मुसीबत आयेंगी , पर जरा नही घबराना ।
आगे बढ़ना ही जीवन है ,नही अतीत संग रहना ,
वर्तमान में खुश रह कर ही,सपने भविष्य के गढ़ना ।
शान्त सरल भाव से बहकर, लम्बी दूरी तय करता,
निज धैर्य सहनशील के कारण, सागर संग मिलता।
कुछ तो सोच मूढ़ मनुज ,अब किस गुरूर में रहता,
जीवन है संघर्ष भरा क्यों ,भक्ति भजन नही करता।
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तुम्ही सदा रहते हो
मेरे मन के हृदय कुंज में,
तुम्हीं सदा रहते आए हो ।
नहीं कल्पना किसी और की
तुम ही तुम बस भाये हो ।
मेरे अंतस के अंधियारे की
तुम ही हो उज्ज्वल भावना,
बंजर पड़ी इस मन भूमि पर ,
अंकुर फूटा बन कामना ,
कभी संकुचित कली रहे हो,
आज पुष्प बनकर आये हो ।
तुम ही तुम बस भाये हो ।।
प्रेम डोर में मन बंधा हुआ
अब छूट नही ये पाता है
उठे भावना अन्तर्मन से
ये कैसा तुमसे नाता है
हर जन्म का साथ हो जैसे,
प्रेम गीत मिल गाये हो ।
तुम ही तुम बस भाये हो ।।
नही रोंकने से रूक पाता ,
ये भाव हृदय के गहरे है ।
प्रेम हमेशा हुआ पराजित,
लगे सदा प्रेम पर पहरे हैं।
ये समाज के बन्धन जो थे,
तुम सभी तोड़कर आये हो।
तुम ही तुम बस भाये हो ।।
चलो आज हम द्वेष मिटा दें
प्रेम गीत मिलकर गायें
प्रेम ही प्रेम दिखे जहां में
प्रेम मयी ये अलख जगायें ।
मेरे रग रग में बसे हो ऐसे
अब लगते नही पराये हो।
तुम ही तुम बस भाये हो ।।
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तन्हाई का आलम
तन्हाई का आलम किसे सुनायें,
उलझन दिल की किसे बतायें,
ख़ामोशी की चादर रात ने ओढ़ी ,
आओ ,ख्वाबों में तुम्हे बुलायें ।
चलती रहती हैं मेरी ये सांसे ,
वरना कब के हम मर जाते ,
हर आहट पर हमने मुड़कर देखा,
आंसू आँख से बहुत बहाये ।
हर रौनक हमें लगती है वीरान ,
सूनी लगती है सुबह और शाम ,
होंठो की रह गई मुस्कान अधूरी ,
दर्द के दिल में कुछ फूल खिलाये।
आओ देखो तो अब ये ख़ामोशी ,
गिन – गिन काटें दिन और राती ,
राहें सूनी अब सफर है तन्हा ,
खुद को हम किस ओर ले जायें ।
यादों की शाखों पर हम बैठे ,
अनचाहे कुछ ख्वाब सजा बैठे ,
काश ! तुम आकर सुन पाते सब,
हम किसको अपना हाल सुनायें ।
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आ जाओ
इस सूखी जीवन की बगिया में
आ जाओ हरियाली सावन की बन कर।
गीला घर का आंगन है
सूखा तो मन का हर कोना है
नीरसता है मुख मंडल पर
आ जाओ सावन के झूले बन कर ।
चहुँ ओर दिख रही हरियाली
बस मेरा जीवन नीरस है
चल रही अकेले मै जीवन पथ पर ,
आ जाओ अब राहें बन कर।
रिमझिम बूंद पड़े पानी की तो
ठंडक नही तपन बढ़ती है
तुम कहाँ गये हो प्रियतम मेरे
आ जाओ मदन, रति, के बन कर।
बिरहन का मन तड़प रहा
अग्नि सा मन धधक रहा
प्यासी होकर तड़प रही
आ जाओ बूंदे स्वाती की बनकर।