चैप्टर – 1
उस रात की बात है। उस समय कोई 11 बज रहे थे। हम दिनभर से अपनी कालोनी में चल रहे गणेशोत्सव के आयोजन में व्यस्त रहने के कारण बेहद थक गए थे। हम थके—हारे लाइट बंद करके सोने की तैयारी कर रहे थे। तभी कहीं से कुटुर—कुटुर की आवाज आई। ऐसा लगा कोई जीव कुछ काटने में लगा है। हमने पहले तो उसे डराने की कोशिश की। झाड़ू इधर—फटकारी, उधर फटकारी। फिर मुंह से शी—शी—फू—फू की आवाजें निकाली। इन सब उपायों का कुछ देर तो असर दिखा पर हम जैसे ही लेटने को हुए फिर कुटुर—कुटुर के साथ किसी के तेज भागने की आवाज आई।
एक छोटी सी चमकीली बिंदी बेडरूम की लॉफ्ट पर एक छोर से दूसरे छोर तक भागती दिखी। हमने घबराकर लाइट जलाई। रोशनी के होते ही उस बिंदी की गति बंद हो गई। ध्यान से देखा तो लॉफ्ट पर रखे गत्ते के डिब्बों के बीच से एक काली सी पतली सी पूंछ झांकती दिखी। कौन हो सकता है, यह? हमने मन ही मन सोचा। फिर एक—दो बार झाड़ू और फटकारी तो पहले पतला सा मुंह दिखा और दो चमकीली आंखें। आंखों के पीछे सतर्कता से घूमते हुए छोटे—छोटे कान!
अरे! यह तो चूहा है। यह कहां से ऊपर पहुंच गया? हम अभी अनुमान लगा ही रहे थे कि वह चूहा लॉफ्ट के नीचे अलमारी पर लगे पर्दे के सहारे नीचे उतरा और फुर्ती से दरवाजे के नीचे के गैप से निकल कर भाग गया। ओह गॉड! चूहे से मुक्ति मिली! हमने सोचा और दरवाजे के नीचे कपड़ा ठूंस कर सो गए।
यह वाकया कोई 20 साल पहले का है। तब मेरे पति विजय वर्गीय दैनिक सबेरा में रायपुर में राजनीतिक संवाददाता का काम करते थे। और मैं यानि संजना वर्गीय घर के पास स्थित एमटीडी प्राइवेट स्कूल में टीचिंग का काम करती थी। हम दोनों की शादी को दो साल हो चुके थे। हमने दो कमरे का छोटा सा घर किराए पर ले रखा था। किराए के मकान में हमारे पास फर्नीचर न के बराबर था। इसकी वजह यह थी कि विजय को लगता था कि एक साल बाद जब यह मकान खाली करना होगा, और दूसरा मकान ढूढ़ना होगा तो फर्नीचर इधर से उधर ले जाने में व्यर्थ ही उसकी टूट—फूट होगी। अत: हमने केवल बहुत जरूरी चीजें ही उस मकान में रख रखी थीं। जैसे— चार प्लास्टिक की कुर्सियां, एक सेंटर टेबल, एक बेड और एक लोहे का पलंग। बेडरूम के कमरे में अलमारी पहले से ही बनी हुई थी अत: उसे लेने की जरूरत नहीं थी।
सच,बड़े सुकून भरे दिन थे। पर उस चूहे ने हमारी रातों की नींद उड़ा दी थी। जैसे ही हम सोने को होते वह पता नहीं किन—किन रास्तों से बेडरूम के अंदर आ जाता। फिर वही उसकी भागम—भाग, कुटुर—कुटुर और गत्ते के डिब्बों को कुतर—कुतर कर उनमें छेद बनाते रहना। उसकी मासूम सी सूरत देखकर उसे मारने या जहर देने की इच्छा नहीं होती थी। उसका शरारती स्वभाव हमारी शांत और ठहरी हुई सी जिंदगी में कभी मुस्कान और कभी गुस्सा भर देता था।
करीब एक डेढ़ माह तक उसका यही कार्यक्रम रहा। कभी चीं—चीं करके इधर से उधर दौड़ लगाता तो कभी उछल—कूद करके मन मोह लेता। कभी हमें डर भी लगता है कि कहीं यह काट नहीं खाए पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।
दिसंबर की सर्दी की बात है। उस दिन आधी रात को हलचल कुछ ज्यादा ही थी। ऐसा लग रहा था दो—तीन चूहे लॉफ्ट पर दौड़ रहे हों। उनकी तेज हलचल के कारण हमारा सोना मुश्किल हो रहा था। विजय ने पहले तो सोचा कि इस चूहे को आज निपटा ही दूं। यह सोचकर वे झाड़ू उठाने गए ही थे कि दो चूहे मेरे ठीक पांव के बगल से कूद कर सर्र से बाहर निकल गए। डर के मारे मेरी चीख निकल गई। विजय भी हैरान रह गए।
क्रमशः (काल्पनिक कहानी )