रचनाकार: विजय कुमार तैलंग, जयपुर
छेद वाली बनियान!
वो सीधे थे, सरल थे, वरिष्ठ थे, गंभीर थे!
घर के बड़े बुजुर्ग, देखने में वे फकीर थे!
बनियान छेद वाली पहन, गर्मियां निकालते!
दीपावली से पहले न बनियान नई डालते!
क्या बागवानी हो या सफाई हो नाली की!
बनियान वही पहने सारा कूड़ा वे निकालते!
पसीने में वे भीगकर बनियान जब उतारते!
नई-पीढ़ी को कोसते और अपनी वे बघारते!
बेमन से उस बनियान को जब बाल्टी में डालते!
नहाते में ही फ़ीन्चकर वे अरगनी पर डालते!
लपेट धोती बदन पर, सामान जब खंगालते!
एक और छेद वाली वे बनियान खुद निकालते!
धुलाई में बनियान के वे छेद भी बढ़ जाते थे!
कोई अगर बता दे तो वे उसपर चढ़ जाते थे
उन चौड़े छेदों में भी वो तनिक नहीं शर्माते थे!
गर्व से बाहर निकल पड़ौसी से बतियाते थे!
बुजुर्ग थे हमारे, मितव्ययता उनकी जान थी!
छेद वाली बनियान उनकी मेहनत की पहचान थी!
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भाई है अभिमान बहिन का!
है नैतिक कर्तव्य हमारा दुर्बल-जन की रक्षा करना!
रक्षा-सूत्र की अवधारणा से, जुड़ी हुई है यही भावना!
बहिन, भाई का ले अवलंबन दुनिया से लड़ सकती है!
सामाजिक सौहार्द सुरक्षा इस त्यौहार से मिलती है!
भाई, बहिन के अधिकारों का रखता है जब पूरा ध्यान!
बहिन न्यौछावर कर देती है उस पर अपना स्नेह समान!
एक बहिन, मिल भाई के संग , ग्यारह की ताकत रखती!
बहिन पर दुनिया, देख भाई को, टेढ़ी आँख न कर सकती!
भाई है अभिमान बहिन का, रखता है वह उसकी आन!
भाई बहिन के अमिट प्रेम की रक्षा बंधन है पहचान!
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मुझे ज्ञान दीप दिखला दो माँ!
स्वर, अनुस्वर से व्यंजन तक,
फिर व्यंजन से भावों में समा!
जो ज्ञान का दीप जलाया था,
उसमें मुझको नहला दो माँ!
मुझे ज्ञान दीप दिखला दो माँ!
रुके न कभी लेखनी मेरी,
शब्दों के निरे अभाव में!
बाधा न पहुंचे प्रकटीकरण से,
कोई सुंदर भाव में!
तुम ज्ञान की देवी माँ शारदे!
मुझे भी कुछ सिखला दो माँ!
मुझे ज्ञान दीप दिखला दो माँ!
मैं निरा मूर्ख तेरे आगे,
नतमस्तक हूँ, करबद्ध रहा!
तुम ज्ञान सुधा का सागर हो,
मैं कब तक प्यासा रहूँ खड़ा?
एक ज्ञान ज्योत की किरण बहुत,
मेरे उर में पहुँचा दो माँ!
मुझे ज्ञान दीप दिखला दो माँ!
यूँ तो गुरुओं ने ज्ञान दिया
चक्षुओं को खोला जग के लिए
शब्दों का भंडारण न भरा
हर भाव प्रकट करने के लिए
मेरे मन के अज्ञान को बस,
समृद्धि तक पहुंचा दो माँ!
मुझे ज्ञान दीप दिखला दो माँ!