रश्मि अच्छी पढ़ी-लिखी खूबसूरत युवती थी। अपनी योग्यता के दम पर उसे एक बड़े कॉर्पोरेट समूह में नौकरी भी मिल गई। तीस लाख रुपये सालाना का पैकेज था। कुछ समय बाद रश्मि की शादी धूमधाम से हो गई। उसका हसबैंड शुभम अपने मां-बाप का इकलौता बेटा था। वह भी एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था। उसका पैकेज चौबीस लाख रुपये सालाना था। घर में पैसा बरसने लगा तो मियां-बीबी की मस्ती, फिजूलखर्ची चालू हो गई।
मियां-बीबी रोज होटल से डेढ़-दो हजार रुपये का खाना मंगा लेते। पॉश कॉलोनी में 75 हजार रुपये मासिक पर किराए का फ्लैट ले लिया। उन्होंने एक उम्दा विदेशी नस्ल का कुत्ता मिलानो भी खरीद लिया डेढ़ लाख रुपये में। उसे एयरकंडीशंड रूम में रखते। उसके लिए बढ़िया कपड़े खरीदते। उसकी हर दो महीने में पालतू पशुओं के सैलून में कटिंग कराते। उसकी देखभाल पर ही 15-20 हजार रुपये हर महीने खर्च होने लगे। घर के काम-काज के लिए दो-दो बाइयां लगा लीं। एक बढ़िया सी लक्ज़री कार ले ली। आखिर पास-पड़ोस वालों को यह जताना भी था कि वे बहुत पैसे वाले हैं।
इस बीच, समय का पहिया अपनी चाल से घूमता रहा। शुभम के माता-पिता और वृद्ध हो गए। अक्सर दोनों बीमार रहने लगे। पिता का स्वास्थ्य लगातार खराब होने से उन्होंने वीआरएस लेना उचित समझा और वे वेतनभोगी से पेंशनभोगी हो गए। शुभम की मां दवाइयों व इलाज के खर्च के लिए पैसे जुटाने के लिए छोटा-मोटा काम करने लग गईं।
एक बार शुभम के पिता को दिल का दौरा पड़ा। अस्पताल ने बायपास सर्जरी के लिए चार लाख रुपये का खर्च बताया। अब शुभम के माता-पिता परेशान हो गए। ऐसे में किसी ने सलाह दी कि आपके बेटा-बहू तो बहुत पैसे वाले हैं। क्यों ना उनसे पैसे उधार ले लिए जाएं। हालांकि शुरू-शुरू में शुभम के माता-पिता बेटे-बहू से उधार लेने को राजी नहीं हुए लेकिन उनके पास और कोई रास्ता भी नहीं था। पिता ने सोचा कि यदि बेटा-बहू मेरी इस समय मदद कर देंगे तो बाद में मैं अपनी गांव की पुश्तैनी जायदाद का कुछ हिस्सा बेचकर उनका उधार चुका दूंगा।
उन्होंने जी कड़ा करके रुपये मांगने के लिए शुभम को फोन लगाया। रश्मि ने फोन उठाया और उसके बाद उन दोनों मियां-बीबी ने जो बात कही, उससे शुभम के पिता को दोबारा दिल का दौरा पड़ते-पड़ते बचा।
जानते हैं, रश्मि और उसके हसबैंड ने क्या कहा था? यही कि ‘पापाजी, आपको मालूम है कि हमारे खर्चे कितने हैं। बड़े शहर में रहते हैं। स्टेटस भी मेंटेन करना है। फिर मिलानो की देखभाल करनी पड़ती है। दो-तीन लाख रुपये साल के तो उसी पर खर्च हो जाते हैं। अब अगर आपको चार लाख दे दिए तो उसकी देखभाल कैसे हो पाएगी?’
यह सवाल सुनकर शुभम के माता-पिता हैरान रह गए और वह उन्हें भीतर तक बींध गया। आखिरकार उन्होंने सोचा कि बेटे-बहू से पैसा मांगना ठीक नहीं होगा। फिर उन्होंने गांव की पुश्तैनी जायदाद का कुछ हिस्सा बेचकर ही सही अपने इलाज का बंदोबस्त कर लिया।
मोरल ऑफ द स्टोरी : कभी किसी के भरोसे नहीं रहें। हमेशा आत्म-निर्भर बनने का प्रयास करें।
(काल्पनिक कहानी)