रचनाकार : विजय कुमार तैलंग, जयपुर (राजस्थान)
चरागों में किसी ने तेल भर दिया होगा!
हमें तड़पाने की जिद में क्यूँ अश्क आने लगे?
वो इस्पात का दिल कैसे अब धड़कने लगा?
वो शोला क्या हुआ जो नज़रों से बरसता था?
क्यूँ दामन काँटों का ओढ़ाया, अब सरकने लगा?
क्या सजा मेरी खताओं की माफ कर दी गई –
या दिल तुम्हारा ही जुल्मों से अब बिदकने लगा?
गुरुर का वो मुलम्मा जो चेहरे पर चढ़ा था –
कैसे उसका वो प्लास्टर अब दरकने लगा?
ये दिल पसीजा है या ऊब गए हो सितम से –
या इस गरीब पर दिल फिर से अब मचलने लगा?
मुझे लगा कि इस तकदीर में तब्दीली हुई –
वरना कैसे ये मौसम रंग अब बदलने लगा?
पड़ी जन्जीरें बदन से किसी ने खोली हैं –
ये जिस्म खुलकर करवटें अब बदलने लगा!
आ रहा माफिक था तेरी इस कैद में रहना –
लगा ये खर्चा भी तुझसे न अब सम्भलने चला!
हुए मजबूर हो या दिल में फिर उल्फत जागी?
मेरा हसीन सितमगर क्यों अब मचलने लगा?
खुदाया देखा नहीं ऐसा ये दस्तूर-ए-मुहब्बत!
बाद नफरत के दिल उनका क्यूँ अब पिघलने लगा?
चरागों में किसी ने तेल भर दिया होगा –
मेरे जीवन का दिया फिर से अब भभकने लगा!
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तस्वीर
खुश्बुएँ उड़ती नहीं तेरे गेसुओं की मगर,
तेरी तस्वीर में, मैंने उन्हें निखारा है!
ये जानता हूँ कि तू देखती नहीं मुझको,
फिर भी तस्वीर में मैंने तुझे उतारा है!
जो रंगत तेरे रुखसारों पर शर्म की देखी,
उसे भरपूर इस तस्वीर में सँवारा है!
जहाँ हम वादियों में छुप-छुप कर मिलते थे,
इस तस्वीर में दरिया का वो किनारा है!
जो तेरी आँखों में चमक थी, मुझे देखने की,
तेरी तहरीर की आँखों में वो सितारा है!
तेरी मुस्कान से फिजां भी झूम जाती थी,
उसी चमन को तस्वीर में उतारा है!
इसी तस्वीर के सहारे ख्वाब आते हैं,
जहाँ तू ने मुझे बेसाख्ता पुकारा है!
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रुखसार – कपोल, गाल
तहरीर – नकल, छवि, तस्वीर
बेसाख्ता – खुलकर