रचनाकार: शबनम मेहरोत्रा, कानपुर
गीत बेचती हूँ
शब्दों से खेलती हूँ फूल अक्षर से गजरा गूंथती हूँ
रंगीन ख़्वाबों को बुनती हूँ अपना दिल बहलाती हूँ
भाँति भाँति के फूलों से यादों की महफ़िल सजाती हूँ
सप्तरंगी सुमधुर रागिनी से सजा,मैं गीतों को बेचती हूँ
पंछी बन उड़ सप्तसुरों को नील गगन ले जाती हूँ
घटाओं को महकाती अवनी अम्बर पे छा जाती हूँ
ओढ़ चूनरिया मेघों की रिमझिम गीत सुनाती हूँ
वसुंधरा पर आ सौंधे सौंधे ख़ुश्बू गीत सुनाती हूँ
पहले पहल गीतों में शर्माई, फिर अक़्ल जगाई
कुछ पिया के पास लिखे मस्ती में कुछ पस्ती में
कुछ शहर में कुछ पहाड़ी पर चढ़ प्रेम साथ लिखे
हैरान हो हुज़ूर?भूख और प्यास मिटाते गीत लिखे
ग़ज़ब के गीत लिखे सजन मधुर मिलन की आस है
प्यार के बाद तकरार है ,जुदाई, फिर भी इंतज़ार है
कुछ गीतों में सूनेपन की वेदना छलछला जाती है
हुज़ूर मीठा गीत ही दवा है हर मर्ज़ कि खरीदेगे ?
कुछ गीत छंद है, कुछ बेछंद , कहो क्या पसंद है
इन दिनों कवि धंधा है ,व्यस्त क़लम का कंधा है
नये पुराने सभी हैं,ना पसंद तो कुछ और लिख दूँ
रेशमी मखमली या खादी का इल्मी या फ़िल्मी दूँ
पहले ही बताती हूँ ,उपलब्ध नहीं व्यभिचारी गीत
जग के पालनहार, सरहद के रक्षक गीत गाती हूँ
हुस्न इश्क के गीत लिख सृष्टि का नियम निभाती हूँ
गमगीन गीत सुनाती हूँ कभी दर्द ए बयाँ कर जाती हूँ
देशप्रेम से ओतप्रोत, शांति के गीत, हास्य भजन भी
इसमें दिल्लगी कि क्या बात? रूठे को मनाते हैं गीत
मैं दिन रात लिखती हूँ , शब्दों से खेलती हूँ ढेर लगा
खरीदोगें ?दाम नहीं लूँगी क्यूँकि गीत बेचना पाप है
ले जाओ साहब ज़मीं में बो देना,सुख चैन धरा पे बिखराना
गीत मेरे ना दानव ना देवता हाँ इंसान को इंसान बनाती हूँ
अक्षर नहीं ये आसमाँ के तारे कुसुम कलि धरा के प्यारे हैं
लेलो आत्मविभोर हो जाओगे परमानंनद सुख पा जाओगे
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छलिया
कहाँ मिलोगे छलिया तुम ?
ढूँढ रही हूँ कबसे तुमको
जल थल और गगन में
मिले न तुम संसार में
कहाँ मिलोगे छलिया तुम ?
ढूँढ रही हूँ अपने अंदर
बैठे जो उन अंतर द्वंद्वों में
खोया कैसे वजूद है मेरा
कहाँ मिलोगे छलिया तुम ?
तन का घाव तो छुप जाये
मन के घाव सीलूँ कैसे
अब छुपते नहीं पैबंदों से
कहाँ मिलोगे छलिया तुम ?
न मंदिर में , न अजान में
न मन विचार शीलता में
न बैठे अखंड अंतर्द्वंद्वों में
कहाँ मिलोगे छलिया तुम ?
सौ जनम गुजर गए
न बुझी अतृप्त प्यास
ये मेरा मन क्यूँ उदास
कहाँ मिलोगे छलिया तुम ?
न मिल सके प्रमाणों में
आत्म मूल में प्रवेश ले
सुशांति सुख अशेष ले
कहाँ मिलोगे छलिया तुम ?
करे स्वयं का बोध हम
ले शांति का प्रबोध हम
मुझमें बैठे मिले हो तुम
मिल गये हो छलिया तुम !
जगत है कल्पना तले
विवेक आत्म में पले
समुन्नति हमें मिले
शांति के द्वार खुले।
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सर्द हवाओं में
सर्द हवाओं में घबरा गई हूँ
इसलिए पास तेरे आ गई हूँ
सोच कर कि उठा दोगे नकाब
मैं पहले से ही शरमा गई हूँ
जब से देखा हूँ घर में दर्पण
रूखे रोशन से इतरा गई हूँ
जानकर तेरे दिल की हालत
पास आने से कतरा गई हूँ
तुम समझते नहीं समझाने से
ये बात कई बार दोहरा गई हूँ
इश्क का राज जानोगी शबनान
मैं तो पहले से बतला गई हूँ
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