–विजय कुमार तैलंग,
जयपुर (राजस्थान)
चैप्टर—1
उस दिन जब मुनिया के पापा शहर से उसे लेने के लिए गांव आए तो मुनिया उदास हो गई। सभी उसे पापा की कार के बाहर खड़े होकर देख रहे थे। जाने क्यों उसे नानी, मामीजी, मामाजी, कद्दू और हाल ही की बनी अपनी सहेली ‘लक्ष्मी’ बहुत अच्छे लगने लगे थे! कार जाने लगी तो सब हाथ हिलाने लगे। जवाब में भरी आंखों से हाथ हिलाते हुए मुनिया यों विदाई ले रही थी मानो एक पंछी जिसे अभी-अभी उड़ने के लिए खुला आसमान मिला था, पिंजरे में बंद होने जा रहा हो।
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शहर में आधुनिक ढंग से पली-बढ़ी मुनिया जब नानी के गांव पहुंची तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। मकान आगे से पक्का तो था पर पीछे आंगन के नाम पर लंबा चौड़ा कच्चा बाड़ा था जहां एक कोने पर मजबूत नीम का पेड़ लगा था और दूसरे कोने में एक कोठरी थी। सब कुछ अजीब-सा था। मौसम बरसात का था।
“नानी वो कोठरी वहां क्यों है? “
“बेटी वो संडास है! ” नानी मुस्कराते हुई बोली।
“वो क्या होता है? ” मुनिया ने पूछा।
“बेटी, शहर में तुम्हारे कमरे के साथ और क्या बना है? “
“बाथरूम-कम-टॉयलेट!”
“… तो बेटी, वो कोठरी टॉयलेट है! “
“नानी, नहाने के लिए जो बाथरूम है आपका, वो तो ठीक किचन के पास है लेकिन टॉयलेट आपने इतनी दूर बनवा दिया? क्यों?”
“बेटी, गांव में टॉयलेट घर के अंदर नहीं बल्कि थोड़ा दूर ही बनवाते हैं!” नानी ने मुनिया को समझाया।
मुनिया को ये बात समझ तो नहीं आई लेकिन वो इतना समझ गई कि शाम पड़े उसे टॉयलेट जाने में परेशानी आएगी।
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मुनिया के मामाजी हँसते-बोलते रहते थे पर मामीजी अधिकतर रसोई में व्यस्त रहती थी। अत: उनसे उसका वार्तालाप कम ही हो पाता था।
मामाजी का बेटा जिसे “कद्दू” कहकर पुकारते थे वो ही उसका हमउम्र यानी लगभग ग्यारह वर्ष का था और मुनिया को खेलने के लिए बाहर गांव में ले जाने की जिद करता था। मुनिया बरसात में कीचड़ हो जाने से उसके साथ बाहर जाने से मना करती थी। वो बहुत सफाई पसंद थी और अपनी ड्रेस पर जरा सी सल भी नहीं पड़ने देना चाहती थी।
“मामाजी! आपने कद्दू का नाम कद्दू क्यों रखा है? क्या आपको कोई सुंदर-सा नाम नहीं मिला? “
मामाजी हँसते हुए बोले – “मुनिया रानी! तुम्हारा स्कूल का नाम क्या मुनिया है?”
“नहीं, अक्षिता है!” मुनिया तपाक से बोली।
“इसी तरह कद्दू का असली नाम वरुण है। समझी! कद्दू तो उसके शैतान दोस्तों ने बोलना शुरू किया था तो सभी उसे कद्दू बोलने लगे। “
मामाजी का उत्तर सुनकर मुनिया चुप तो हो गई लेकिन उसे कद्दू नाम का औचित्य फिर भी समझ नहीं आया।
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उस दोपहर मुनिया नानी के पास घर के मुख्य द्वार पर बैठी थी कि कुछ युवतियां चटकीले रंगों वाले ग्रामीण वस्त्रों में सुसज्जित सावन के गीत गाती गाँव के रास्ते से मंदिर की तरफ जा रही थी जिन्हे मुनिया आश्चर्य मिश्रित भाव से देख रही थी।
क्रमश:
(काल्पनिक कहानी)