–विजय कुमार तैलंग,
जयपुर (राजस्थान)
आखिरी चैप्टर
उस दोपहर मुनिया नानी के पास घर के मुख्य द्वार पर बैठी थी कि कुछ युवतियां चटकीले रंगों वाले ग्रामीण वस्त्रों में सुसज्जित सावन के गीत गाती गांव के रास्ते से मंदिर की तरफ जा रही थी जिन्हे मुनिया आश्चर्य मिश्रित भाव से देख रही थी।
नानी के इस गांव वाले घर पर मुनिया पहली बार आई थी जबकि नानी कहती थी कि उसका जन्म ही इसी गांव में हुआ था। दो महीने की हो गई थी तभी वो मां के साथ शहर चली गई थी।
“नानी, ये सब लेडीज इकट्ठी होकर कहां जा रही हैं?”
“बेटी, ये मंदिर जा रही हैं!” नानी ने मुनिया की जिज्ञासा शांत की।
“इतनी सुंदर-सुंदर ड्रेस पहनकर ये कीचड़ भरे रास्ते से बच-बच कर निकल रही हैं। क्या इनकी ड्रेस खराब नहीं होती?” मुनिया ने पूछा।
“नहीं बेटी, इन्हें ऐसे रास्ते पर चलने का पूरा अनुभव है। कहीं जब किसी के कपड़े गंदे हो भी जाते हैं तो वे धो लेती हैं। ” नानी ने कहा।
मुनिया सोच में पड़ गई। हमें मम्मी ड्रेस खराब होने का डर दिखा कर कभी बारिश के मौसम में बाहर ही नहीं जाने देती हैं जबकि उसका मन ऐसे ही मौसम में बाहर जाकर अपनी सहेलियों के साथ मस्ती करने के लिए मचलता रहता है। एक यह गांव है, जहां लेडीज, बच्चे, बच्चियां सब सजे-धजे, बाहर निकल कर गांव तो क्या आस-पास के क्षेत्र के भी चक्कर लगा कर आते हैं।
कद्दू तो सुबह से गायब होता है तो दोपहर खाने के समय ही आता है।
xxxx
इन्हीं दिनों मामाजी ने एक नया, मजबूत, मूंज का, लंबा-सा रस्सा लाकर बाड़े में नीम के नीचे ला पटका। मुनिया हैरानी से देखने लगी। उसके मन में प्रश्न तो आया पर उसने मामाजी से नहीं पूछा।
“कद्दू! ” उसने किसी काम से घर में प्रवेश करते कद्दू को देखकर पुकारा।
“हां! ” वो पास आकर बोला।
“वो रस्सा देखा तूने?” मुनिया ने पीछे बाड़े की ओर इशारा करते हुए पूछा।
कद्दू ने जरा गर्दन टेढ़ी कर बाड़े की तरफ देखकर कहा -“हां, तो क्या? “
“वो किसलिए लाए हैं? ”
कद्दू हंसा और ताली बजाकर बोला- “बावली है। अरे रस्सा लाकर नीम के पेड़ के नीचे इसलिए रखा है कि तू आई हुई है!”
“क्या मतलब? ” मुनिया समझी नहीं।
“भई, तू तो बाहर जाती नहीं। वहां मंदिर के लम्बे-चौड़े मैदान में बरगद के पेड़ पर दर्जन भर झूले पड़े हैं जिनपर हम सारे दोस्त और चाची, मामी, भाभी वगैरह रोज जाकर झूलते हैं! वहां जाकर तू झूला झूलती नहीं, क्योंकि रास्ते का कीचड़ तेरे कपड़े खराब कर देगा, इसलिए बापू ने तेरे लिए यहीं झूला डालने के लिए रस्सा लिया है।” मुनिया गहरे सोच में पड़ गई।
अगले दिन कद्दू बाहर जाने लगा तो मुनिया ने कहा- “रुक, मैं भी चलूंगी।” कद्दू अवाक देखता रहा तब तक मुनिया नानी को बताकर, सैंडिल पहनकर कद्दू से बोली -“चल, मंदिर चलते हैं! “
वह कद्दू के साथ जा रही थी और नानी उसे मुस्कराते हुए, जाता हुआ देख रही थी।
(काल्पनिक कहानी)