रचनाकार : शिखा तैलंग
अभी कुछ दिन पहले की बात है। गिरीश मिला था। मेरे बचपन का दोस्त। मैंने उसकी कामयाबी के किस्से सुन रखे थे कि उसने हमारे शहर भोपाल से कोई 10 किलोमीटर दूर एक फैक्टरी खोली है ललिता नगर में — कंघे बनाने की। कंघा यानि कॉम्ब जिससे हम सब अपने बाल रोज संवारते हैं। सुना था कि उसने तीन साल में इस फैक्टरी की जरिये ऐसी तरक्की की कि हर महीने 50—60 हजार रुपये का टर्नओवर हो गया। एक छोटे शहर में इतना एमाउंट काफी मायने रखता है बशर्तें कि घर भी अपना हो!
मुझे वे दिन याद आए जब गिरीश और मैं आठवीं कक्षा में एक सरकारी स्कूल में पढ़ते थे। उसके पिता जनक यादव ललिता नगर के मेन मार्केट मे चाय की थड़ी लगाते थे। वे पैसे कमाने के लिए दिन रात कड़ी मेहनत करते थे। चाय के चूल्हे के ताप से तप कर वे कुंदन जैसे हो गए थे। पसीने की बूंदें उनकी ललाट पर शोभायमान रहतीं। कभी छोटा गिरीश तो कभी उसकी मां विमला जनक के काम में हाथ बंटाने जाते रहते थे और थड़ी पर लग रहे गिलासों के ढेर को साफ करके उनके साथ सहयोग करते रहते थे।
जब गिरीश आठवीं में आया था तो उसके पास टेक्स्ट बुक तक खरीदने तक के पैसे नहीं थे। उसकी माली हालत देखकर मुझे तरस आया और मैंने अपने पापा अरुण श्रीवास्तव से उसकी मदद का आग्रह किया। मेरे पापा पीडब्ल्यूडी मे हेड क्लर्क थे।
मेरे आग्रह को पापा ने मान लिया और उसे पचास रुपये दिए किताबे खरीदने के लिए। जब मैंने उसके हाथ में ये रुपये रखे तो उसकी आंखों में खुशी के आंसू आ गए और चेहरे पर कृतज्ञता का भाव! वह भर्राए गले से बोला— शुक्रिया! बसंत! मैं तुम्हारा यह अहसान जिंदगी भर नहीं भूलूगा।
उसकी बातें सुनकर मैं भी भावुक हो गया और उसकी आंखो के आंसू पोंछले हुए बोला— गिरीश! तुम मेरे सच्चे दोस्त हो। यदि तुम मुसीबत में हो तो ऐसा कैसे हो सकता है कि मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं करूं? जब अपनो पर संकट होता है तो मुझे चैन नहीं पड़ता। मेरी कोशिश यही रहती है कि मैं उसके दर्द में हमदर्द बन सकूं।
तब का दिन है और आज का दिन है। आज मैं एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क हूं और गिरीश एक फैक्टरी का मालिक! शहर के कामयाब तथा तेजी से प्रगति कर रहे उद्यमियों में उसकी गिनती होती है।
जब वह मिला तो मैं उसे अपने घर के पास कॉफी हाउस में ले गया। थोड़ी—बहुत इधर—उधर की बातें करने के बाद मैंने पूछा — यार! अपन लोग करीब 13 साल बाद मिल रहे हैं। इस बीच कितने मौसम आए—गए जिंदगी के कितने रंग हमने देखे पर तूने तो कामयाबी की नई इबारत ही लिख दी। बता न कैसे हुआ यह सब?
(क्रमशः)