रचनाकार : सुशीला तिवारी, पश्चिम गांव,रायबरेली
कोहरा
सूरज सहमा लगता है ,कोहरे वाली सुबह सुहानी
सुबह सवेरे ऐसे बरसे जैसे बरस रहा हो पानी
हर ठंडी में ऐसे ही होता ये नही कोई नयी कहानी
ऐसे ही ऋतु आती जाती चलती रहती यही कहानी।
हर गली में हर शहर में कोहरे का कोहराम है ,
भगवान भास्कर अपने लोक में कर रहे विश्राम है ,
जिन्हे मुफ़लिसी ने आ घेरा उन्हे कहां आराम है,
देखो अयोध्या आ रहे अब अवध पति श्री राम है।
कोहरे के इस बोझ से सिहर उठी है धरती ,
सर्दी से जन मानस कांप रहा कांप रही है प्रकृति ,
साथ समय के चलना पड़ता चाहे गर्मी हो या सर्दी,
जीव जन्तुओं को भी मौसम की मार झेलनी पड़ती ।
कोहरे के आगोश में ठहर गई है जिन्दगी,
घर में जीवन कैद हो गया आ गई है अब सादगी ,
रोज नहाकर पूजा करना ये है हमारी संस्कृति ,
मौसम परिवर्तन होगा कभी आयेगी प्रकृति बसंती।
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कोहरे का कोहराम’
कोहरे का कोहराम,,,,धुंधली हुई दिशाएँ ,
धूप कहीं नही दिख रही मौन हुई आशाएँ ।
शीत लहर का प्रकोप धुआं हुआ आकाश
धूप निकलने की भी नही दिख रही आस ।
परिदृश्य हो गया कैसा धुंधली हुई दिशाएँ ,
धूप कहीं नही दिख रही, मौन हुई आशाएँ ।
कोहरे की इस मार से, ,जन जीवन है त्रस्त ,
फिर भी खान-पान में,, सभी हो गए व्यस्त ,
आओ जल्दी सूर्य देव हम सब तुम्हे बुलाएँ,
धूप कहीं नही दिख रही ,,मौन हुई आशाएँ ।
सुबह शाम एक मंजर ,,,ओस की बूंदे छाई ,
इतनी धुंध छाई है दिखे न खुद की परछाई ,
नव पल्लव प्रकृति होगी ,लगी हुई आशाएँ ।
धूप कहीं नही दिख रही, कैसे कहें व्यथाएँ ।।
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जब चली ठंडी हवा
ठंडी हवाओं का होता अपना अलग मिजाज ,
ये करती हैं मनमानी सर्दी गर्मी हो या बरसात ।
स्थिति और परिस्थित से बदल देती स्वरूप ,
सर्दी में दुखदाई है,, गर्मी में देती है राहत खूब ।
देह कंपा देती है पर ये, बड़ी सुहानी लगती है ,
हवा बसंती चलने से प्रकृति पल्लवित होती है ।
जब चली ठंडी हवा फिर,, छाने लगा कुहासा ,
धुंधली हुई दिशाएँ सारी दिखने लगा धुंआ सा।
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उसी से प्यार क्यूँ है
शिकवा गिला जिससे ,उसी से प्यार क्यूँ है!
यै जीस्त मुझको उसका,,, इन्तजार क्यूं है !!
दुनिया में जैसे कुछ भी उसके बिना नही है,
उससे ही दिल हमारा,,,,,,,खुशगंवार क्यूं है!
दिन- रात रहता मेरे,,,,,,,, वो खयालात में ,
मदहोशी खूब छाई ,,,,,छाया खुमार क्यूं है !
वादे पर वो हमारे,,,, उतरा खरा कभी ना ,
फिर भी न जाने इतना,,,,,, ऐतबार क्यूं है !
दिल उसने मेरा तोड़ा ,, , तो दर्द बढ़ गया ,
नासाज दिल हमारा करता,,आभार क्यूं है !
दुनिया है कितनी रंगी ,,,लोग हमसे कहते,
देखा करूँ मैं उसको ,,दिल बेकरार क्यूं है !
सुनते हैं हम हमेशा,,,, बातें बस उसी की,
फिर भी उसी की बातें ,,,,;;नागंवार कयूं हैं !
उसमें है बेवफ़ाई “सुशीला”,,, को है पता ,
फिर उसी की खातिर दिल-ए-अजार क्यूं है!
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