रचनाकार : सुशीला तिवारी, पश्चिम गांव ,रायबरेली
क़ुदरत का करिश्मा
अनीता के चेहरे पर कुछ उदासी कुछ खुशी के भाव स्पस्ट झलक रहे थे। वो अपने बेटे के साथ दूर खड़ी थी ।
आज उसकी तपस्या जो पूर्ण हो गई थी ।
बिधू दुल्हन बन कर डोली में जा रही थी। और अनीता बेबस
निगाहों से उसे अपलक देखे जा रही थी तभी वो अतीत में खो गई।
राजेश के साथ मेरा पाणिग्रहण बहुत सादगी से हुआ था क्यों कि मैं गरीब परिवार से थी।और राजेश एक बेटी का पिता
बेटी पांच साल की थी। जब मुझे राजेश घर लेकर आये।
फिर रीति-रिवाज के बाद बेटी को बुलाया कहा ये तुम्हारी मम्मा हैं बेटी एकटक मुझे घूरती रही फिर तपाक से बोली नही ये मेरी मम्मा नही है। मेरी मम्मा भगवान के यहाँ चली गई,समय रफ्तार से बीत रहा था उसकी नफरत और मेरे प्रति बढ़ने लगी।
राजेश उसे समझाते थे। पर वो समझ न सकी सयानी और समझदार जो
हो गई थी अब छोटी छोटी बात पर वाद-विवाद करती।
जिसके कारण राजेश परेशान रहने लगे अब तो मेरे भी एक बेटा हो चुका था।
आखिर नफरत के माहौल में मैंने सुकून की तलाश करना बेकार समझा,
उधर राजेश की परेशानी और बेटी के प्रति स्नेह भी देखा हमने, फिर मैने कुछ कठोर फैसला लेने का निश्चय करके राजेश के नाम एक पत्र लिखकर रख दिया।
राजेश हो सके तो मुझे माफ कर देना मैं अपने बच्चे के साथ घर छोड़कर जा रही हूँ तुमसे मुझे कोई गिला शिकवा नही तुमसे मुझे बहुत प्यार मिला पर मैं बाप और बेटी के बीच दीवार नही बनना चाहती विधू को अच्छी परवरिश देकर शादी कर देना।मैं मेरे बेटे के साथ जीवन यापन कर लूंगी।
माँ!
तभी बेटे की आवाज से अनीता की तन्द्रा टूटी। देखा तब विधू की डोली आंखो से आहिस्ता- आहिस्ता ओझल हो चुकी थी।
आज उसकी आंखो से बिन बादल मेह बरस गये।
सोंचने लगी…
ये कैसा कुदरत का करिश्मा है!
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बारिश की बूँदें और हम
बारिश ,,,,,की हल्की- हल्की बूँदें
अनायास ही घोर गर्जन के साथ वसुन्धरा को भिगो रही थी,
मैं बावरी सी खिड़की के पास खड़ी प्राकृतिक सौंदर्य को एकटक निहार कर अपने आप में खो जाना चाहती थी।
तभी हवा का झोंका,,,,,नन्ही -नन्ही फुहार लेकर आया,और तन-मन को आल्हादित कर गया,,, कुछ पल के लिए ही सही
पर ,,,,मैं भी पूरी तरह से बारिश की बूंदो में भीग जाना चाहती थी , सूखते प्रेम के वृक्ष को नवीनता मिले , जिससे कटुता का भाव धुल जाये, और प्रेम अंकुरित हो,
तभी एक आहट सी खयालों में हुई बंद दरवाजे से कोई आया
मैं मौन होकर अद्भुत दृश्य को देखती हूँ।
पल भर में प्रेम जगाकर अदृश्य हो गया,ख्वाब टूट कर चूर-चूर हो गया।
और मैं बाहर निकल पड़ी, दोनो हांथ फैलाकर फुहारों संग घूम -घूम कर मचलने लगी और यूँ लगा जैसे बोझ उतर गया मन रूपी वृक्ष का ,,,,,
सबकुछ भुलाकर कुछ पल भीगने दिया खुद को,
चिन्ता,अवसाद सब कुछ धुल गया बारिश की बूंदों,,,, संग,
शायद एक अरसे के बाद ,,,,,,,
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अब और नही ।
अब बस !बहुत हुआ,,,,,
दीपा ने अपनी जरूरत का सामान पैक करते हुए तेज आवाज में अपने पति देव से कहा ?
क्या मैं किसी कहानी का किरदार हूँ, जो जरूरत के मुताबिक
प्रयोग हो जाऊँ ,
तुम्हे अपनी मनमानी करना है तो करो, मैं बच्चों को लेकर जा रही हूं, फिर नही आऊंगी।
राजेश वहीं पर खड़ा कातर निगाहों से दीपा को जाते हुए देख रहा था ,अपनी गलत हरकतों की वजह से उसे रोकने का अधिकार खो चुका था, रोके तो रोंके कैसे
पछतावे की अग्नि उसे अंदर ही अंदर जला रही थी, उसने मन ही मन संकल्प किया, खुद में सुधार लाने का
और चल पड़ा जिन्दगी के नये सफर पर नयी ऊर्जा नये विस्वास के साथ दीपा को लेने
चलो दीपा बहुत हुआ बस !
अब और नही ।
(काल्पनिक रचनाएं )