रचनाकार : सुनीता मिश्रा, देहरादून, उत्तराखंड
“अब नहीं जाते हो क्या? राघव से मिलने?” प्रज्ञा ने पूछा।
”वक्त की कमी है दो-चार दिन के लिए घर जाता हूं घर परिवार से मिलने में ही वक्त निकल जाता है।”
प्रज्ञा कॉफी पीते हुए कनखियों से आदेश को देख लेती फिर आंखें दूसरी तरफ कर लेती! जाने क्यों वह आदेश की आंखों में आंखें डाल बात नहीं कर पा रही थी। उसे कभी किसी से बात करने में झिझक नहीं होती, किंतु आज उसे क्यों संकोच हो रहा था। वो समझ नहीं पा रही थी ।
”अच्छा एक बात बताओ तुम क्लासरूम में हमारे बेंच के तरफ देखकर बहुत मुस्कुराया करते थे कौन थी वो ?” प्रज्ञा ने मुस्कुराते हुए पूछा।
”हां थी कोई, जिस पर दिल आ गया था। 14 ,15 साल की उम्र का प्यार तुम नहीं समझोगी!”
”फिर भी बता सकते हो!” प्रज्ञा होले होले मुस्कुराते हुए बोली।
आदेश — “अच्छा रुको तुम्हारे पास कोई सफेद कागज है क्या?”
“हां डिपॉजिट फॉर्म है मैंने एक्स्ट्रा लिया था।” प्रज्ञा ने आदेश के तरफ उस फॉर्म को बढ़ाते हुए कहा।
आदेश ने अपने पॉकेट से पेन निकाल डिपॉजिट फॉर्म के पीछे भाग में तेजी से कुछ लिखा और फिर उसको मोड कर प्रज्ञा को पकड़ाते हुए कहा, ”तुम्हारी प्रिय सहेली रीमा से बात होती है क्या? कहां है वह आजकल।”
प्रज्ञा ने मुस्कुराते हुए पूछा, ”क्यों रीमा की याद कैसे आ गई।”
वही तो थी जिसे देख मुस्कुराया करता था दिल में उसका ही ख्वाब बुनने लगा था।
”वह जब भी मिले यह पत्र तुम उसको दे देना पहले कभी तो दे नहीं पाया किंतु जिंदगी में पछतावा ना रहे इसलिए आज लिखकर दे रहा हूं जब भी मिले उसे जरूर दे देना।”
आदेश मुस्कुराते हुए प्रज्ञा की तरफ डिपॉजिट फॉर्म पर लिखा हुआ पत्र बढ़ाते हुए कहा।
प्रज्ञा आश्चर्य चकित हो आदेश को निहारती रह गई ।
सुन्न दृष्टि लिए हुए!
प्रज्ञा ने हाथ खींचते हुए कहा ।
”रीमा से शादी के बाद मैं कभी नहीं मिली हूं, वर्षों बाद उसका फोन नंबर मिला ,तो भी बातें नहीं हो पाती। वह अपने घर परिवार में इतनी व्यस्त है कई कई महीने हो जाते हैं हमारे बीच बातें नहीं हो पाती।”
“और फिर अब पत्र देने का क्या मतलब है? किसी की शादीशुदा लाइफ में उथल-पुथल मचाने से क्या फायदा।”
प्रज्ञा ने शांत लहजे में कहा!
आदेश – ”अरे नहीं गलत मत समझो यह प्रेम पत्र नहीं है। इसमें कुछ किशोर अवस्था के मीठे पल हैं जो जिंदगी के एक हिस्से में अंकित है,और उसे हम कभी भी नहीं मिटा सकते। हमें नहीं लगता कि कोई इस पल से वंचित रह पता होगा। और रहना भी क्यों?
यह वों यादें है जो याद आने पर होठों पर एक मीठी मुस्कान ला देती है। इसमें कोई बुराई नहीं कोई पाप नहीं यह तो निश्चल मीठी यादें है। इसमें मेरा फोन नंबर है और दिल की वह बातें हैं जो कभी कहना था,किंतु कह नहीं पाया था बस मन हल्का करने के लिए लिख कर दे रहा हूॅं। ऐसा करना तुम इसे पहले पढ़ लेना फिर उसके व्हाट्सएप पर डाल देना। पढ़ने के बाद सही ना लगे तो इसे फाड़ कर फेंक देना। किंतु पहले पढ़ जरूर लेना। उसके बाद ही रीमा को बताना।” आदेश ने जिद करते हुए कहा।
प्रज्ञा ने विवश होकर वह पत्र ले पर्स में डाल लिया।
क्रमश: