रचनाकार : सुनीता मिश्रा, देहरादून, उत्तराखंड
प्रज्ञा को रास्ता बहुत कठिन लग रहा था !
मन के एक कोने में एक दर्द उठ रहा था कितनी बड़ी गलतफहमी में वों थी। उसे क्यों लगने लगा था कि आदेश उसे देखकर मुस्कुराता।
प्रज्ञा अपनी जिंदगी में बेहद खुश थी! बेहद प्रेम करने वाला और समझदार पति! दो प्यारे प्यारे बच्चे जिंदगी हर तरफ से सुखी संपन्न था।
किंतु अतीत की मीठी यादें कभी-कभी जिंदगी में वापस आती है।
हालांकि अब उन यादों का कोई मायने नहीं रह जाता ।
फिर भी दिमाग उन यादों को दूर नहीं कर पाता कहीं ना कहीं एक कोने में वह अपना स्थान बनायें रहते हैं।
कई दिन बीत गए प्रज्ञा ने उस पत्र को नहीं खोला । पर्स बेडरूम की स्मॉल टेबल पर रखे हुए पर्स में था। आज अचानक प्रज्ञा के पति ने मेंन गेट की चाबी मांगी ।
उसने तो चाबी पर्स में ही छोड़ रखी है! किचन से ही प्रज्ञा ने पति को पर्श से चाबी निकाल लेने को कहा।
पति को चाबी निकालते देख अचानक प्रज्ञा को पत्र की याद आई और वह तेज तेज कदमों से किचन से बेडरूम में जाते हुए बोली, ”रुक जाओ। आपको चाबी नहीं मिलेगी। मैं निकाल कर देती हूं।”
पति के ऑफिस जाने के बाद घर के सारे काम निपटाकर आज प्रज्ञा कई दिनों बाद उस पत्र को लेकर बैठी, बहुत सोचने के बाद उसने पत्र को खोला ।
हालांकि यह बात उसके सिद्धांत के खिलाफ था किसी और का पत्र पढ़ना या किसी और के जिंदगी में ताक-झांक करना ।
किंतु आदेश के कहे अनुसार उसने पत्र को खोलकर पढ़ना शुरू किया।
लिखा था—
”प्रज्ञा ! माफ करना मैंने तुमसे झूठ बोला था ….
क्योंकि मैं सच बाता कर तुम्हारे नजरों में गिरना या तुम्हें तकलीफ देना नहीं चाहता था।
मुझे नहीं पता तुम्हारे मन में क्या था, किंतु यह सत्य था नवी दसवीं कक्षा में मैं जिसे देख मुस्कुराता था या मेरे दिल में जिसके लिए कुछ एहसास था वह रीमा नहीं तुम थी। तुम्हारी सादगी मुझे बहुत भाती थी। आज भी तुम्हारी सादगी तुम्हारा बात करने का तरीका वैसा ही सरल और अहंकार मुक्त है। मुझे खुशी है कि जिंदगी का पहला मधुर ख्वाब मैंने तुम्हारे लिए देखा था। हालांकि हर ख्वाब पूरे नहीं होते, इसीलिए इंसान को कुछ ख्वाब को ख्वाब रखकर ही मन में मधुर एहसास लिए दिल में संजोए रखना चाहिए। और मैं इसे सदैव संजोए रखूंगा। तुम्हारे मन में क्या था यह मुझे नहीं पता और मुझे जानना भी नहीं। किंतु मैं अपने दिल की बात तुम्हें बता कर अपने दिल के साथ न्याय कर रहा हूं।
तुम्हें बुरा लगा हो तो क्षमा चाहता हूं।
आदेश!”
प्रज्ञा के हाथ कांप गए। पत्र पढ़ते पढ़ते कब उसकी आंखों से निकल कुछ आंसू के बूंदें उसके गालों तक पहुंच गए उसको पता नहीं चला।
प्रज्ञा के होठों पर एक मुस्कान खिल गई।
अपने आंखों में आए हुए आंसुओं का और होठों पर आए हुए मुस्कान का कारण वो खुद नहीं समझ पा रही थी।
किंतु वह खुश थी उसके जिंदगी का पहला इंसान भी सच्चा और निस्वार्थ था।
और सात जन्मों का साथ निभाने वाला भी ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ है !
प्रज्ञा खुश थी उस पत्र में फोन नंबर कहीं भी नहीं लिखा हुआ था! जहां स्वार्थ मुक्त प्रेम हो, वहां ही मुस्कान खिलती है!!
समाप्त (काल्पनिक रचना )