रचनाकार : दिविक रमेश, नोएडा
कभी कोई शब्द दिमाग में आता और तब तक अटका ही रहता जब तक कोई कविता नहीं लिखवा लेता ठीक वैसे ही जैसे कुछ चरित्र कहानी लिखवा कर ही मुक्त करते हैं।
मैं जब भी लिखता वह एक आवेग की तहत सम्पन्न होता। आवेग की समाप्ति के साथ ही कविता भी समाप्त हो जाती। आवेग के बाहर जोड़ना-घटाना मुझे कविता को खराब करना प्रतीत होता। इसीलिए अगर किसी को लगता है कि मेरी कुछ कविताएँ झटके के साथ ख़त्म हो जाती हैं तो वह मेरी रचना-प्रक्रिया का ही विशिष्ट आयाम है।
मेरी साहित्यिक सक्रियता दिविक, मुट्ठियों में बंद आकार और दूसरा दिविक आदि के माध्यम से काफ़ी बनी हुई थी। दिविक को छोड़ शेष दो का तो मैं सम्पादक भी था। ‘मुठ्ठियों में बंद आकार’ तक मैं अपने मूल नाम ‘रमेश शर्मा’ के नाम से लिखता-छपता था। हालांकि मुझसे ज़्यादा प्रसिद्ध उन दिनों कंक के सम्पादक रमेश शर्मा थे। मेरा नया नामकरण हुआ दिविक रमेश जो कुछ दिनों तक रमेश दिविक – दिविक रमेश के द्वन्द्व में भी फँसा रहा। असल में यह शब्द दिल्ली विश्वविद्यालय कवि का संक्षिप्त रूप है।
विवाह के बाद करौल बाग छोड़ा और दक्षिण दिल्ली के लाजपतनगर में आ गया। यहाँ कवि भारतभूषण अग्रवाल से भेंट हुई जिन्होंने शमशेर जी की बहुत तारीफ़ की। उनका व्यक्तित्व मुझे बहुत प्रेरणादायी लगा। फिल्म देखना उन्हें भी पसन्द था और मुझे भी।शमशेर जी से सम्पर्क बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ।
कॉलिज में प्राध्यापक हुआ था तो मैंने अपने कुछ साथियों को अपने स्वभाव के अनुकूल पाया। वे वामपंथी थे। प्रभाव में मैं भी वामपंथी हो गया। वैसा साहित्य भी पढ़ा। आन्दोलनों में सक्रिय हिस्सेदारी ली। यहाँ तक कि धारा 144 तोड़ने पर तिहाड़ जेल की सैर भी की। लेकिन बाद में जिस आदर्श को लेकर मैं संघर्ष के जिस रूप को महत्त्व देकर चल रहा था उस पर मोहभंग का तगड़ा आघात भी लगा। मेरे साहित्यिक हृदय को राजनीतिक अटकल बाजी एकदम नहीं भायी। अतः मेरी तब की रचनाओं में ऐसी रचनाएँ भी सम्मिलित होने लगीं जिनमें मोहभंग के साक्षात्कार का स्वर था, जिनमें अपनी ओर तथा अपने सरोकारों की कमज़ोरियों की ओर देखने की भी ललक थी। यूँ ‘नारेबाजी’ वाले मुखरित स्वर की ओर मैं पहले भी साहित्य के धरातल पर आकर्षित नहीं था। मेरे इस बदलाव को देख बहुत से नारेबाज तथाकथित प्रगतिशील युवा लेखकों/समीक्षकों ने मुझ पर भरपूर आक्रमण किये। एक पत्रिका ने तो लगभग 8 पृष्ठों का सम्पादकीय ही लिख दिया। पत्रिकाओं का मंच अब मेरे पास भी सुलभ था अतः मैंने जवाब भी दिया और अपने विचारों को सप्रमाण स्पष्ट भी किया। गुटवादिता और वह भी अपने-अपने स्वार्थों की सिद्धि के लिए निर्मित गुटवादिता मुझे ज़हर की तरह नज़र आने लगी। मैंने अपने तरीके से उसका विरोध किया (जो आज भी ज़ारी है) और बदले में पाया कि सबने (उन्होंने भी जिन्होंने मेरी रचनाओं को कभी सराहा था) अपनी अपनी सूचियों से मेरा नाम काट दिया। लेकिन गनीमत यह रही कि पत्र-पत्रिकाएँ ऐसी भी बहुत थीं जो मेरी रचनाएँ ससम्मान छापती थी। न सही विशेषांकों में लेकिन मेरी रचनाएँ कितने ही वरिष्ठ कवियों के द्वारा सराही – अपनायी गयीं। सबसे अधिक मुझे पाठकों से बल मिला जिनमें आती हुई पीढ़ी के रचनाकार भी थे। इसी समय एक मत बना कि किसी भी प्रकार की आलोचना का जवाब एक बेहतर रचना के द्वारा देना चाहिए। यह धारणा आज तक बनी हुई है। विचारधारा जीवन दर्शन के रूप में मुझे अब भी प्रिय है।
क्रमश:
One Comment
Comments are closed.
Aapko filmein dekhna pasand h aur vaampanthi vichardhara se bhi apka naata rha h, toh apne Hazzaron Khwahishein Aisi aur Paan Singh Tomar dekhi h? Yadi ha, to apki qa raay h un filmon k baare me?