रचनाकार : विजय कुमार तैलंग, जयपुर
चैप्टर-1
उसने पाउच को दांत से काटा और प्लास्टिक के गंदे से जग में उड़ेल दिया। वह अस्त व्यस्त सी कोठरी के एक कोने में सिमटी रसोई से चंद बरतनों में से गिलास ढूंढता हुआ बड़बढ़ाया – ” बोतल ले लेता तो न गिलास की जरूरत पड़ती और न ही बरतनों को टटोलने की, पर पाउच सस्ता जो है।”
उसे गिलास मिल गया था जिसमें उसने जग का कुछ लिक्वर डाला और पीने लगा।
” वह यहाँ सवेरे सवेरे पॉलीथीन की थैली ढूँढने आ जाती है, जैसे सारे शहर की गंदगी मेरे ही घर के पास पड़ी हो!”
नशे में शायद वो जरा जोर से बोल पड़ा था जिसे पॉलीथीन बटोरने वाली लड़की ने सुन लिया था।
“क्या बक-बक कर रहा है बे?” वो झल्ला कर बोली।
“चल चल अपना काम कर! अपना काम!” वह बोला और खाली गिलास को एक ओर दे मारा।
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विरासत में उसके पास उस गंदगी के पहाड़ पर बनी वो कोठरी ही बची थी जिसमें वह अपना सर छुपा सकता था। पढ़ना लिखना तो भाग्य में था ही नहीं, बाप कबाड़ी था जो कोठरी के चारों तरफ भारी कबाड़ छोड़ कर मर गया। माँ बचपन में ही सिधार गई थी। बाप के रहते उसने सारा समय जवानी जमा खर्च में निकाल दिया। उसके चले जाने के बाद एक दोस्त से साइकिल और कार में पन्क्चर लगाने का काम सीख लिया। दोस्त की ही दुकान पर बैठ कर वो पन्क्चर लगाता था।
उसका खर्च दो टाइम की रोटी और एक पाउच था जिसके लिए उसे दिन भर पन्क्चर लगाने पड़ते थे।
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नशीला पदार्थ पीकर वो बहक जाता था वरना उसे पॉलीथीन बटोरने वाली वो लम्बी लड़की भी भली ही दिखती थी जिसके नाक नक्श बड़े तीखे थे और आवाज कर्कश। अपने लिए रोज-रोज रोटी बनाते उसे बड़ा आलस आता था। एक बार उसने पॉलीथीन बटोरने वाली उस लड़की से बोला था :-
“मेरी रोटियां बना दिया कर, पैसा दे दूंगा। “
“चल हट, दारूड़ा!” वह उसे झिड़कती हुई बोली और पॉलीथीन बटोरने में लगी रही।
“घर में कौन-कौन है तेरे?” उसने बात बढ़ाई। आज वह होश में था।
“तुझे क्या करना? “
“उनसे तेरे मेरे ब्याह की बात चलाऊंगा।”
“रहने दे, रहने दे, तेरे बस का कुछ नहीं है।” वह मुँह बिचकाती चली गई।
वह सोचने लगा कि वास्तव में क्या कुछ भी उसके बस में नहीं है? वो नीचे वाली कच्ची बस्ती से आती थी जहाँ रहने वाले लगभग सभी लोग दशकों से वहाँ कबाड़ी का धन्धा करते थे।
वह सोच रहा था कि उसके बाप ने न जाने क्या सोचकर इस ऊँचे पहाड़ जैसे स्थान पर कोठरी बनाई थी? सारे शहर का कूड़ा इसी पहाड़ की तलहटी में ट्रकों से डम्प किया जाता था। पॉलीथीन चूंकि हल्की वस्तु होती है सो जब हवा चलती या आंधी आ जाती, पॉलीथीन की सैकड़ों थैलियां उड़कर उसकी कोठरी से लिपट जाती थी।
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उस सर्दीली आधी रात को जब वो गूदड़ी में लिपटा, पीकर सो रहा था तभी उसकी नींद बहुत से लोगों के शोर शराबे को सुनकर अचानक टूट गई। शोर में आदमियों और औरतों के साथ-साथ बच्चों के रोने चीखने की आवाजें भी आ रही थी। उसने कोठरी का दरवाजा खोला तो देखा नीचे कच्ची बस्ती धू धू कर जल रही थी।
(क्रमशः )