रचनाकार : विजय कुमार तैलंग, जयपुर
आखिरी चैप्टर
उसने कोठरी का दरवाजा खोला तो देखा नीचे कच्ची बस्ती धू धू कर जल रही थी।
लोग पानी की बाल्टियाँ लेकर अपने अपने घर की आग बुझाने के लिए दौड़ भाग कर रहे थे। उसकी आँखें हैरानी व अनहोनी के डर से फटी जा रही थी। वो कुछ नहीं कर सकता था। वो ऊँचाई पर होने की वजह से सुरक्षित था। उसने कोठरी का दरवाजा बंद कर लिया और गूदड़ी में पुन: लिपट कर लेट गया। उसने लिहाफ को अपने सिर के चारों तरफ कस कर लपेट लिया ताकि उसे बस्ती का शोर सुनाई न दे। उसकी आत्मा ने उस पल उसे टोका था “कायर” मगर वह टस से मस न हुआ। वह शोर सुनकर भी सोया बना रहा।
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सुबह उसकी नींद खुली। वो कोठरी से बाहर आया। नीचे देखकर अवाक रह गया। एक भी घर वहाँ ऐसा न बचा था जो आग से जल न गया हो। घरों की काली पड़ी दीवारें, बिखरा, जला हुआ लोगों का सामान, कबाड़ का ढेर और न जाने क्या क्या। आग में झुलसे लोगों के लिए अस्थाई मेडिकल टेन्ट लगाकर प्राथमिक उपचार दिया जा रहा था। बहुत से लोग पलायन के मूड में अपना समान खोज खोज कर गाड़ी में जमा रहे थे। उसने सोचा, एक चक्कर लगा ही आए।
वह नीचे उतर कर जली हुई बस्ती के बीच से चलने लगा। आग की गर्मी वहाँ पड़े राख के ढेरों से धधक रही थी। लोग उस पर ध्यान नहीं दे रहे थे और न ही उसे लोगों से कोई मतलब था। वह तो उस पॉलीथीन बटोरने वाली लड़की को ढूंढ रहा था जिसके घर का भी उसे ठीक से पता न था। वो कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। उसे आशंका हो रही थी कि वो भी कहीं आग के हवाले न हो गई हो! यदि सच में ऐसा हुआ हो तो……? “नहीं, नहीं!” वह स्वयं ही बड़बड़ा उठा।
उसने मेडिकल टेन्ट की ओर रुख किया। किसी का हाथ जल गया था, किसी का पैर। किसी का चेहरा झुलस गया था तो किसी का लगभग समूचा बदन। घायलों में भी वो पॉलीथीन बीनने वाली लड़की न दिखाई दी। अचानक टेंट के पीछे सफेद चादर में लिपटा कोई जमीन पर पड़ा हुआ उसे दिखाई दिया। उत्सुकतावश वो चक्कर काट कर टेंट के पीछे जा पहुंचा। वहाँ मेडिकल टीम का एक कर्मचारी खड़ा था।
“कौन है ये?” उसने कर्मचारी से पूछा।
“है नहीं, थी। मर गई। एम्बुलेंस के इंतजार में बॉडी रखी है। कुछ गंभीर घायल भी एम्बुलेंस से अस्पताल भेजे जायेंगे।”
“क्या मैं देख सकता हूँ?
” क्यों, तेरी क्या लगती थी?”
“कुछ नहीं!”
“तब हट जा यहाँ से!”
वह कायर तो था, इसमें उसे संदेह न रहा था। वो थोड़ा पीछे हट गया। जो सफेद चादर में लिपटी हुई पड़ी थी, वो ठीक उसी पॉलीथीन बटोरने वाली लड़की की कद काठी व लम्बाई की लग रही थी। वो यही मना रहा था कि हे भगवान! ये ‘वो’ न हो लेकिन उसकी, मरने वाली के चेहरे को देखने की हिम्मत नहीं हो रही थी। ऊपर वाली दाहिनी पलक पर ठहरा हुआ एक आँसू जो अभी टपका नहीं था, उसकी हताशा और निराशा का स्पष्ट संकेत दे रहा था। उसने कुछ रोज के लिए दूसरे शहर जाने का मन बना लिया।
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वह बड़े शहर में झोपड़ पट्टी में रह रही अपनी दूर की काकी के यहाँ गया पर उसे वहाँ इतनी लानत-मलामत मिली कि वह दो दिन में ही लौट कर आ गया।
लौटकर उसने भारी मन से अपनी कोठरी खोली।
शाम का धुंधलका तेजी से रात में तब्दील होने जा रहा था। न चाहते हुए भी उसने जली-उजड़ी उस कच्ची बस्ती को देखा, काली पड़ी उस बस्ती में आज सब शांत था। एक दीप भी नहीं टिमटिमा रहा था। घुप्प अंधेरा पसरा हुआ था वहाँ। हाँ, थोड़ी दूर कोई शिविर लगा हुआ था जहाँ इस बस्ती के विस्थापित हुए लोगों को अस्थाई रूप में शरण मिली हुई थी शायद, वहीं से कुछ रोशनियाँ चमक रहीं थी। सोने के लिए उसने साथ में लाया पाउच दांत से काटा और पास पड़े लोटे में उड़ेल लिया।
सुबह नींद और नशे से भारी, उनींदी आँखों से उसने कोठरी के खुले दरवाजे से उसी पॉलीथीन बटोरने वाली लड़की को देखा और अवाक रह गया। खुशी, आश्चर्य और नशे के प्रभाव में वह जोर से हँसता हुआ बोला:- “तू मरी नहीं?”
लड़की ने सुन लिया और पलट कर उलाहने के लहजे में बोली:- “कैसे मरती? तुझ जैसे दारूड़े की रोटी जो बनानी थी।” वह स्तब्ध हो उसे देखने लगा।
“चल हट! एक तरफ हो! …कायर कहीं का!”
इतना कह, वो उसे जबरन एक तरफ करती हुई स्वयं कोठरी में प्रवेश कर गई।
(काल्पनिक कहानी)