रचनाकार : दिविक रमेश, नोएडा
कहा जा सकता है कि ये ऐसी पंक्तियां हैं जिनसे आज का व्यंग्यकार व्यंग्य की भाषा और शॆली के बारे में बहुत कुछ सीख सकता है ।
नि:संदेह अपने समकाल में भी हम व्यंग्य को जिस रूप में पाते हैं उसकी उपस्थिति हिन्दी की केन्द्रीय और प्रतिष्ठित कविता में भी बखूबी देखी जा सकती है ।अर्थात मुक्त छंद या छंद मुक्त कविताओं में व्यंग्य का उल्लेखनीय निवास है । नगार्जुन, त्रिलोचन, अज्ञेय, भवानी प्रसाद मिश्र, प्रभाकर माचवे, रामविलास शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल, रघुवीर सहाय, रामदरश मिश्र, धुमिल, मानबहादुर सिंह आदि से लेकर आज तक की पीढ़ी के उल्लेखनीय कवियों कविताओं में भी।
मेर और इस लेख को पढ़-सुन रहे कवियों में कौन होगा जिसकी कविता में व्यंग्य न आया हो। नामों की सू्ची पर मत जाइए।वैसे मेरा सुझाव है कि इस संदर्भ में विस्तार में जाने के लिए ऊपर बतायी जा चुकी डॉ. शेरजंग गर्ग की पुस्तक को पढ़ा जा सकता है।एक लंबी सूची हाथ आ जाएगी। हां, यहां नागार्जुन का विशेष उल्लेख अवश्य किया जा सकता है जिन्हें अपवाद की तरह लगभग व्यंग्य कवि भी कहा जा सकता है। उन्होंने कितनी ही कविताएं राजनीतिक रंग की लिखी हैं और उनमें अधिकतर व्यंग्यपूर्ण हैं। उन्होंने सामान्तवाद के विरुद्ध और जनता को छलने वालों के प्रति भी व्यंग्य बाण छोड़े हैं।
व्यंग्य-शॆली की दृष्टि से जिसे भिगो-भिगो कर मारना कहते हैं उसका पूरा परिपाक नागार्जुन के यहां मिलता है, इसके बाद रघुवीर सहाय में। त्रिलोचन और भवानी प्रसाद मिश्र ऐसे कवि हैं जिन्होंन ’वस्तु’ को राजनीति तक सीमित न रख कर व्यापक किया है ।समय-समय पर व्यंग्य-यात्रा पत्रिका भी अनेक व्यंग्य प्रधान कविताओं को प्रकाशित करती रहती है। कबीर जैसे व्यंग्य निपुण के खास अध्येता हजारी प्रसाद द्विवेदी का एक कथन याद आ रहा है।
उनके अनुसार, “व्यंग्य वह है , जहां कहने वाला अधरोष्ठ में हँस रहा हो और सुनने वाला तिलमिला उठा हो और फिर भी कहनेवाले को जवाब देना अपने को और भी उपाहास्यापद बना लेना हो जाता हो।” आज की कितनी ही कविताएं व्यंग्य को समझने के लिए बताई गई परिभाषाओं की कसौटियों पर खरी उतरने का सामर्थ्य रखती हैं ।
आज की पीढ़ी की हिन्दी कविता भी व्यंग्य की प्रवृत्ति से अछूती नहीं है और वस्तु की दृष्टि से उसका दायारा भी विस्तृत नजर आता है। यह बात अलग है कि हिन्दी की केन्द्रीय धारा में व्यंग्य कविता नाम की कोई धारा अभी रूप नहीं ले सकी है और इसके कवि भी व्यंग्य का प्रयोग सहज भाव से करते नजर आते हैं। अत: ऐसे आशावादी निष्कर्षों से, जिनके अनुसार ’व्यंग्य की प्रवृत्ति स्वातंत्र्योत्तर काव्य की सर्वाधिक विकसित और अनिवार्य प्रवृत्ति है तथा इस प्रवृत्ति ने अन्य सभी प्रवृत्तियों के कवियों को भी व्यंग्य करने की ओर प्रेरित अवं प्रवृत्त किया है ’, से फिलहाल पूरी तरह सहमत नहीं हुआ जा सकता। केन्द्रीय हिन्दी कविता में ऐसी कविताएं या उनके ऐसे अंश खोजने पड़ते हैं जिनमें गम्भीर व्यंग्य हो।
कृपया इसे निराशाजनक स्थिति न समझा जाए बल्कि वास्तविकता के रूप मेँ ग्रहण किया जाए यहां। मैं, अपने आज के अर्थ में व्यंग्य शब्द का प्रयोग कर रहा हूं, व्यंजना अथवा ध्वनि का नहीं, यह स्पष्ट करना जरूरी है।
No Comment! Be the first one.