रचनाकार : दिविक रमेश, नोएडा
कविता में त्रिलोचन जॆसे इने-गिने कवियों के यहां आत्मव्यंग्य भी देखा जा सकता है ।
मेरी इच्छा कविता में व्यंग्य के संदर्भ को अपने समय की कविता की आंख से देखने की होते हुए भी सबसे पहले बात मैं तुलसीदास पर लाना चाहूंगा। बालकाण्ड की निम्न प्राय:जानी -पहचानी अभिव्यक्तियों पर गॊर किया जाए–
समरथ कहुँ नहिं दोष गोसाई। (68/4)
अर्थात समर्थ का कोई दोष नहीं माना जाता। इस अभिव्यक्ति का कटाक्ष और व्यंग्य के रूप में प्राय गलत-सही और बिना संदर्भ में गए प्रयोग होते हुए देखा गया होगा। मैंने स्वयं व्यंग्य यात्रा के प्रवेशांक में प्रकाशित ऊपर संकेतित अपनी टिप्पणी में इस कथन को नारद -प्रसंग से जोड़ने की भूल की थी। इसके विस्तार में जाने से पूर्व एक और अभिव्यक्ति उद्धत करता हूं–
पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी।।
मथत सिंधु रुद्रहि बॊरायहु। सुरन्ह प्रेरि बिष पान करायहु॥ (135/4)
असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारू।
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥ (136)
परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावई मनहि करहु तुम्ह सोई॥
भलेहु मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥ (136/1)
अर्थात तुम दूसरों की सम्पदा नहीं देख सकते, तुम्हारे ईर्ष्या और कपट बहुत हैं । समुद्र मथते समय तुमने शिवजी को बावला बना दिया और देवताओं को प्रेरित करके उन्हें विषपान कराया। असुरों को मदिरा और शिवजी को विष देकर तुमने स्वयं लक्ष्मी और सुन्दर (कौस्तुभ) मणि ले ली। तुम बड़े धोखेबाज और मतलबी हो। सदा कपट का व्यवहार करते हो। तुम परम स्वतंत्र हो, सिरपर तो कोई है नहीं, इससे जब जो मन को भाता है, वही करते हो। भले को बुरा और बुरे को भल कर देते हो। हृदय में हर्ष-विषाद कुछ भी नहीं लाते।
यहां खीज और उलाहने से कटाक्ष और व्यंग्य तक की पदमय सशक्त यात्रा देखी जा सकती है । कोई भी यही आशय लेगा कि यहां किसी सत्ताधारी की अच्छी क्लास ले ली गई है । संदर्भ और प्रसंग से काट कर पढ़ेंगे तो ये पंक्तियां सचमुच कुटिल और हिटलराना प्रवृत्ति के सत्ताधारी के प्रति सशक्त और मारक व्यंग्य की अनुभूति ही देंगी। ऐसी अनुभूति के आनन्द के लिए थोड़ी देर को भूलना होगा कि इनके रचयिता भक्त तुलसीदास हैं ।
आपको याद ही होगा कि ’समरथ कहुँ नहिं दोष गोसाई’ का संबंध मूलत: शिव से है जिसे उनके उमा के वर होने के संदर्भ में कहा गया है । शिव क्योंकि समर्थ हैं अत: उनके तथाकथित दोष गुण की श्रेणी में ही कहे जाएंगे। उसी प्रकार जैसे शेषनाग की शय्यापर सोने के बावजूद पण्डित विष्णु पर दोष नहीं लगाते, गंगा में शुभ-अशुभ जल जाने के बावजूद कोई उसे अपवित्र नहीं कहता। सूर्य, अग्नि और गंगा की भाँति समर्थ को कुछ दोष नहीं लगता। देखा जा सकता है कि जिस संदर्भ में उक्त पंति को कहा गया वह पठक को व्यंग्य की ओर जाने से रोकता है। लेकिन आज के, विशेष रूप से राजनीतिक और ब्यूरोक्रेसी के संदर्भ में यदि इसका अलग से उपयोग किया जाए तो यह एक सशक्त व्यंग्य का सृजन कर देगी।
अब हम अन्य पंक्तियों को लें जिनका संबंध नारद मोह-भंग से है । ये पंक्तियां विष्णु के कारण माया के वशीभूत हुए नारद के द्वारा विष्णु को क्रोध में कही गई हैं । ध्यान देना होगा कि यदि तुलसी की निगाह से देखेंगे तो दोष माया और क्रोध के खाते में ही डालना पड़ेगा, लेकिन वस्तु और उसके संदर्भ को हटाकर, अभिव्यक्ति के रूप में समझेंगे तो ये पंक्तियां आज के कुटिल और हिटलराना प्रवृत्ति के सत्ताधारी के प्रति सशक्त और मारक व्यंग्य की अनुभूति ही देंगी। कहा जा सकता है कि ये ऐसी पंक्तियां हैं जिनसे आज का व्यंग्यकार व्यंग्य की भाषा और शॆली के बारे में बहुत कुछ सीख सकता है ।
क्रमश:
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