रचनाकार : दिविक रमेश, नोएडा
व्यंग्य विधा है या नहीं, आज भले ही इस प्रश्न का बहुत हद तक समाधान हो चुका हो लेकिन व्यंग्य का संबंध, अधिक क्या सामान्यत: गद्य से ही बना हुआ है। कविता की बात आती है तो तय करना मुश्किल हो जाता है कि साहित्यिक परिवेश में तमाम व्यंग्य प्रधान कविताएं होने के बावजूद ‘व्यंग्य कविता’ का अस्तित्व है भी कि नहीं।
व्यंग्य यात्रा के प्रवेशांक (अक्टूबर दिसम्बर, 2004) में मेरी एक आहूत टिप्पणी प्रकाशित हुई थी- `संदर्भ कविता का’, जिसमें मैंने लिखा था-“ नयी कविता के जो दो प्रमुख आधार तत्व माने गए हैं वे नाटकीयता और व्यंग्य हैं। इन दोनों के बिना फ्री वर्स मेँ लिखी जाने वाली कविता में चमक ही नहीं आती।“ बातचीत अथवा विचार-विमर्श में कविता में व्यंग्य की ही बात करने का चलन है। यूं भी जब हम व्यंग्य कविता कहने को उत्सुक होते हैं तो एक खास माहौल के कारण हास्य-व्यंग्य या हास्य-व्यंग्य की कविता के नाम से अधिक संबोधित करते हैं ।
व्यंग्य-विनोद भी कम ही कहा जाता है । और हम जानते हैं कि हास्य-व्यंग्य या हास्यव्यंग्य की कविता को बुद्धिजीवी ’मंचीय वस्तु’ का नाम देते हुए अधिकतर साहित्य का हेय, चालू और अगम्भीर कर्म ही मान लिया करते हैं । डॉ. शेरजंग गर्ग ने भी अपने चर्चित शोध प्रबंध का शीर्षक ’स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कविता में व्यंग्य’ रखा है न कि ‘स्वातंत्र्योत्तर र्हिन्दी व्यंग्य कविता’।
एक बात और । गद्य में लिखे जा रहे व्यंग्य की लोकप्रियता और कुछ मूल्यांकन (जिसका श्रेय स्वयं व्यंगकारों को ही अधिक जाता
है ) की उपस्थिति के बावजूद व्यंग्य को विधा के रूप में मानने को लेकर जब तब दुविधा फन उठाती भी दिखती रही है । हरिशंकर परसाई ने व्यंग के विस्तृत दायरे को सब विधाओं कॊ ओढ़ लेने में समर्थ मानते हुए उसे ’स्ट्र्कचर’ स्वीकार करने से इंकार किया है। उन्होंने तो व्यंग्य की उपस्थिति निबंध, कहानी, नाटक आदि सब विधाओं में मानी है।(मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं, लेखक की बात)।
ध्यान देने की यह बात भी है कि परसाई ने विधाओं की बात करते हुए कविता का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है । व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी भी व्यंग्य को विधा नहीं मानते नजर आते हैं । लेकिन व्यंग्य को विधा मानने वालों में बाद की पीढ़ी के प्रेम जनमेजय जैसे प्रतिष्ठित व्यंग्यकार भी हैं जो प्रारम्भ से ही व्यंग्य को विधा ( मैं साक्षी हूं जून, 1975 में प्रकाशित ’व्यंग्य एक और एक’, पुस्तक के सह सम्पादक होने के नाते) न केवल मानते आ रहे हैं बल्कि उसे ऒरों से मनवाने में भी काफी हद तक सफल हो चुके हैं। सुरेश कांत की समझ है कि ’ व्यंग्य एक स्वतंत्र गद्य-विधा है, किन्तु वह शैली या स्पिरिट के रूप में अन्य विधाओं में व्याप्त होने की सामर्थ्य भी रखता है।’
स्पष्ट है कि औरों की तरह सुरेश कांत भी व्यंग्य को, विधा की दृष्टि से, पद्य या कविता से परे ही मानते प्रतीत होते हैं। अनेक विद्वानों ने निबंध साहित्य में व्यंग्य की जड़ मानी है। भारतेन्दु युग निबंधों का उद्गम युग माना गया है। अत: यह वास्तविकता है कि कविता या पद्य को अभी व्यंग्य को वह दर्जा मिलना है जो उसने गद्य से कमोबेश हासिल कर लिया है । खैर, विधा के प्रसंग में और अधिक डूबने की अनधिकृत चेष्टा करना खुद को ही व्यंग्य का शिकार बनाना हो जाएगा। अत:विराम।
इतिहास में जाएं तो पद्य या कविता में व्यंग्य की अच्छी उपस्थिति बहुत पहले से रही है । यहां तक कि आत्मव्यंग्य भी मिल जाएगा जिससे हिन्दी का व्यंगकार प्राय: बचता ही प्रतीत होता है । कविता में त्रिलोचन जॆसे इने-गिने कवियों के यहां आत्मव्यंग्य भी देखा जा सकता है ।
क्रमश:
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