दृश्य एक :
दो साल पहले पूरे देश में जमकर कोरोना फैला हुआ था। लॉकडाउन के कारण बाजार बंद रहते और लोगों को सड़कों पर निकलने की मनाही रहती। पुलिस कोशिश करती कि ज्यादातर लोग अपने घरों में ही बंद रहें और कोरोना का संक्रमण काबू में बना रहे। ऐसी ही कठिन परिस्थितियों के बीच एक दिन विशाल ने अपने कवर्ड कैंपस के पास की झुग्गी बस्ती से रोने की आवाजें सुनीं।
‘शायद किसी की मौत हो गई है!’ उर्मिला ने कहा। वे दोनों माजरा जानने की उत्सुकता से मास्क आदि लगाकर पुलिस की नजरों से बचते-बचाते उस झुग्गी तक पहुंचे जहां रोना-धोना चल रहा था।
वहां देखा कि एक वयोवृद्ध सूरज पंचोली की मृत देह पड़ी है और उसके घरवाले विलाप कर रहे हैं। विशाल ने हिम्मत जुटाकर पूछा – ‘क्या हुआ भाई?’ इस पर वयोवृद्ध के बेटे मंगल ने कहा – ‘हमारी झुग्गी में राशन-पानी सब खत्म हो गया है। बाजार बंद रहने से दुश्वारियां बढ़ गई हैं। अन्ना और हम चार दिनों से बिना कुछ खाये-पीये रह रहे थे। अन्ना को चार-पांच बीमारियां पहले से ही थीं। लॉकडाउन के कारण खाने-पीने नहीं मिला तो और कमजोर हो गए और उन्होंने दम तोड़ दिया!’
झुग्गी वाले परिवार की दास्तां सुनकर विशाल और उर्मिला दोनों की आंखें डबडबा आईं। विशाल बोला – ‘उर्मि अपने को कुछ करना होगा, इनकी खातिर! इंसानियत की खातिर!’
उर्मिला को विशाल की बात अच्छी लगी पर अगले ही क्षण मायूस हो गई। वह कुछ सोचते हुए बोली – ‘क्या हम सब इनकी मदद करते हुए सेफ रह पाएंगे? कोरोना तो जबर्दस्त फैला हुआ है और पुलिस की सख्ती अलग चल रही है…’
‘जो होगा सो देखा जाएगा। इस समय तो मुझे उनकी मदद के सिवा कुछ नहीं सूझ रहा। तुम आज से इनके लिए भी खाना बनाना शुरू कर दो। मैं इन तक जैसे भी हो खाना जरूर पहुंचा दूंगा।’
इसके बाद विशाल और उर्मिला अपने मिशन में जुट गए – झुग्गी वाले पीड़ित परिवार तक राशन-पानी पहुंचाने में। करीब पंद्रह दिन तक छिपते-छिपाते और तमाम एहतियात बरतते दोनों मियां-बीवी मंगल के परिवार तक दो टाइम का खाना पहुंचाते रहे। मंगल इन दोनों के सेवाभाव से बहुत प्रभावित था और मन ही मन सोच रहा था कि लगता है ईश्वर ने हमारी मदद के लिए इनको जन्म दिया है। जब पंद्रहवें दिन विशाल को लगा कि अब मंगल का परिवार खतरे से बाहर है और स्थिति संभल गई है तो उसने विनम्रता से कहा कि वो अगले दिन से राशन आदि देने नहीं आ पाएगा। इसके बाद मंगल ने विशाल और उर्मिला के प्रति कृतज्ञता जताते हुए उनका मोबाइल फोन नंबर ले लिया ताकि आगे जरूरी होने पर एक दूसरे के संपर्क में रहा जा सके।
दृश्य दो :
अगली बार कोरोना का और जबर्दस्त प्रसार हुआ। विशाल और उर्मिला तमाम सावधानी रखने के बावजूद उसकी चपेट में आ गए। विशाल ने पहले दिन तो जैसे-तैसे करके दोनों के लिए खिचड़ी बना ली। पर कमजोरी, थकान, बुखार, सांस लेने की तकलीफ आदि के कारण धीरे-धीरे दोनों की हालत और खराब होने लगी और वे लस्त पड़ने लगे। चार कदम चलना भी मुश्किल हो गया।
इसी बीच, पड़ोस की झुग्गी बस्ती के मंगल ने विशाल को फोन लगाकर हाल-चाल पूछा। विशाल बमुश्किल से बोलते हुए, अपना हाल-चाल उसे बता सका। खांसी से उसे इतना परेशान कर रखा था कि बोलना मुहाल हो गया था। उसकी बातें सुनकर मंगल बोला – ‘मैं करता हूं कुछ इंतजाम!’
इसके बाद मंगल ने थोड़ी खोजबीन की तो पता चला कि एक एनजीओ कोरोना पीड़ितों को निशुल्क खाना मुहैया करा रहा है। यह जानकारी मिलने पर मंगल ने एनजीओ वालों को विशाल और उर्मिला के बारे में बताया। जल्द ही एनजीओ ने विशाल व उर्मिला के लिए दो टाइम भोजन की थाली भेजने की व्यवस्था कर दी। उनका आदमी आता, दरवाजे पर थाली रखकर चला जाता। नियमित रूप से खाना मिलने से विशाल व उर्मिला की हालत धीरे-धीरे सुधरने लगी। फिर डॉक्टर रणधीर मिश्रा से वे फोन पर विचार-विमर्श कर दवा आदि पूछ ही लेते थे। वे दवा आदि का ब्योरा मंगल को भेज कर बाजार से दवाइयां आदि मंगवा लेते। विशाल फोनपे से मंगल को दवाई के लिए पैसे भेज देता। मंगल अपनी जान जोखिम में डालकर उनके दरवाजे पर दवाइयां रखकर चला जाता था। यह सिलसिला करीब 15 दिनों तक चलता रहा।
जब उर्मिला और विशाल ठीक हो गए तो मंगल उनसे मिलने आया। उनकी दास्तां सुनकर वह बोला – ‘भाई साहब! पिछली बार आपने हमारे लिए अन्न दान किया था। इस बार जब आप पीड़ित हुए तो उसी दान के प्रताप के कारण आपको मदद मिल गई। कोरोना हार गया, इंसानियत जीत गई!’
मोरल ऑफ द स्टोरी : स्वार्थी मत बनिए, न मुसीबत से घबराइए। इंसानियत की मशाल को जलाए रखिए और दूसरों की मदद के रास्ते तलाशिए।
(काल्पनिक कहानी)