आ तेरा श्रंगार करूँ
चमके जो तेरा रूप सवेरा, मैं उस दिन का दीदार करूँ।
चांदनी रातें भी शरमाएं, मैं तुझसे प्यार का इज़हार करूँ।
तेरी जुल्फों के साए में, मैं हर ख्वाब साकार करूँ।
तेरे होंठों की खुशबू से, मैं जज्बातों का व्यापार करूँ।
आ तेरा श्रृंगार करूँ, हर लम्हा तुझपे निसार करूँ।
पलकों में छुपा लूँ तुझको, और दिल को बार-बार करूँ।
तेरी चाल में जो ठहराव है, उसमें खुद को बेसुध करूँ।
तेरी आँखों के गहरे सागर में, मैं अपना संसार करूँ।
तेरे बिना ये जीवन सूना, ये बात तुझसे स्वीकार करूँ।
तू साथ रहे तो हर दर्द को, हँसते-हँसते बेक़रार करूँ।
तेरे काजल की लकीरों से, मैं आसमान का श्रृंगार करूँ।
तेरे इश्क़ की मिट्टी से, मैं हर मंज़र को गुलज़ार करूँ।
तेरे बिन हर खुशी अधूरी, मैं इस दिल का इज़हार करूँ।
तू जो मुस्काए एक बार, मैं खुद को दुनिया से पार करूँ।
आ बैठ करीब सुन सांसों की धड़कन हर शब प्यार करूँ।
तेरे बिना कुछ भी नहीं, ये सवाल खुद से बार-बार करूँ।
आ तेरा श्रृंगार करूँ, तुझे खुदा का उपहार करूँ।
तेरी आरती उतारूँ हर पल, और जीवन तुझपे निसार करूँ।
– राजेन्द्र कुमार पाण्डेय “राज” बिलासपुर,छत्तीसगढ़
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किसने तार हृदय के छेड़े?
मन भारी, बोझिल हैं पलकें, तन्हाई ने डाले डेरे
यादों के आंगन में आकर, किसने तार हृदय के छेड़े?
किसने राग विरह के गाए
रात चांद भी अश्रु बहाए
मन व्याकुल तन विह्वल हो
शीतल पवन हृदय झुलसाए
चुपके-चुपके हृदय कुंज में, किसने आखिर डाले डेरे
यादों के आंगन में आकर, किसने तार हृदय के छेड़े?
देखो घाव बहुत ही गहरा
उस पर रात में चांद का पहरा
चोरी-चोरी स्वप्न में आकर
कौन है मन-मानस में ठहरा
प्रणय निवेदन किया मौन हो, किसने अद्भुत चित्र उकेरे
यादों के आंगन में आकर, किसने तार हृदय के छेड़े?
कौन अंधेरे में घर आया
चौखट पर नवदीप जलाया
सकुचाते हुए प्रेम जगा उर
धानी चूनर जब लहराया
आधी रात को मन-मंदिर में, कौन लगाया नेह के फेरे
यादों के आंगन में आकर, किसने तार हृदय के छेड़े?
चमके दामिनी मन घबराए
देख-देखकर चांद डर जाए
सौन्दर्य अप्रतिम लेकर रजनी
निकली सजकर नभ सकुचाए
आहुति देकर प्रेम यज्ञ में, नभ नन्दन के संग ली फेरे
यादों के आंगन में आकर, किसने तार हृदय के छेड़े?
– कुमार विशू , गोरखपुर ,उत्तर प्रदेश
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अपने भीतर के रावण को जलाओ
मिल कर जलाये सबने,
पुतले रूपी रावण को।
कहाँ जला पाये मगर,
भीतर बसे रावण को।।
माना जला दिया आज,
रावण रूपी पुतले को।
आया कहाँ गुण राम का,
निशि-दिन जपने वाले को।।
हर लिया जिस सीता को,
इंतजार क्यों स्वीकृति का?
भंग कर सकता था वह,
सतीत्व पल में सती का।।
सोचो,आत्म-चिंतन करो,
वृथा न यूँ भ्रमण करो।
वैसे तीर्थ से क्या लाभ,
विचारो,ओ मूरख नरों।।
नज़रिया ही जब रावण का,
राम भजने से क्या लाभ?
विचार नज़रिया ही न बदले,
उस धर्म का क्या लाभ?
रावण एक था उस काल में,
एक राम अवतार लिया।
यहाँ तो घट-घट रावण है,
कहाँ जाए आख़िरकार सिया?
व्यभिचार राम-राज में क्यों,
क्यों कुंठित हुई है सोच?
क्या यही राम से सीखा हमने,
रावण की ही करो खोज?
जबकि हम सब रावण हैं,
फिर पुतले क्यों जलाते हैं?
हममें जो पनप रहा है,
उसे क्यों न जलाते हैं?
पुतले जलाना क्षणिक आनंद,
उस पर क्यों जाते हो?
हम ही राम हैं, रावण भी,
ये क्यों नहीं समझते हो?
हममें जो उत्पन्न विकार है,
उन विकारों को जलाओ तो।
अपार आनंद पाओगे जगत में,
सच्चे विचार जगाओ तो।।
रावण कभी मरेगा ही नहीं,
लाख इसको जला दो।
हमारे भीतर के तहखाने में जबतक,
रावण-दुष्प्रवृत्ति ज़िंदा हो।।
– भोला सागर, चन्द्रपुरा,बोकारो,झारखण्ड
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