रचनाकार : विजय कुमार तैलंग, जयपुर
ताज्जुब होत रहो ऊखौं कि सहर में इत्ते पढ़े-लिखे लोग रहत हैं, ऊकी सीधी सी बात काय नहीं समझत? बो चार दिन खों अपने दोस्त के पास आओ है। जे सहर बाले उसे ऐसे घूरत हैं जैसे चिड़ियाघर में कोनौ नयो जानवर लाओ गओ है। का जे सहर बाले ऐसें ही अपने मेहमानन को सुआगत करत हैं?
उस दिन दोस्त जब अपने काम पर गया था तो वह भी हवा खोरी के लिए बाहर निकल गया। शहर की चौड़ी सड़कों पर घूमते हुए उसे एक मल्टीप्लेक्स दिखा। बिल्डिंग की दीवार पर एक फिल्म का पोस्टर लगा था जिसमें हीरो एक शेर से लड़ता हुआ दिखाया था। उसे ये फिल्म देखने की उत्कट इच्छा हो आई। तभी चल रहा शो छूट गया और लोगों की भीड़ हाल से बाहर आने लगी। उसने टिकट खिड़की से पूछा, “टिकट कित्ते को है?” बुकिंग क्लर्क ने ऊपर इशारा किया जहाँ लिखा था ₹400/-.
“ठीक है भैया। अब जे बताओ कि ई फिलम में हीरो और सेर की लड़ाई आधी छुट्टी के पैले होत है या बाद में?”
“टिकट लो फिल्म देखो सब जान जाओगे! ” बुकिंग क्लर्क बोला।
“इसको मतबल जे है कि तुमने खुदई फिलम नईं देखी और बैठ गए टिकट बेचबा के लाने।” उसने बोला।
तभी पास से एक व्यक्ति निकल रहा था तो उसने उसे रोकते हुए पूछा – “भैया, का जे फिलम देख के आए रहे हो?”
आदमी से उसे घूरा पर आशय समझ कर बोला – “हाँ! “
“तो जे बताओ कि ई में हीरो सेर से आधी छुट्टी के पैले लड़त है या के बाद में?”
” पहले! ” आदमी इतना कह कर तेजी से आगे निकल गया।
तब वह ₹200/- का नोट निकाल कर टिकट विंडो की तरफ मुँह करके बोला – “ऐसो करो भैय्या, कि हमें अभै आधो टिकट दे देओ, काय से कि हमें जे फिलम आधी छुट्टी तकई देखनी है। बस्स! “
बुकिंग क्लर्क ने उसे ऐसे घूरा जैसे वो कोई अजूबा हो और बोला – “केड़े पिण्ड तों आए हो?”
“का मतबल? ” उसने पूछा।
“अरे, कौन गाँव से आये हो?”
“जो बताबो जरूरी है का? आधो टिकट लेने को? “
“टिकट पूरा ही मिलेगा। लेना हो तो चार सौ रुपया दो नहीं तो जाओ!” बुकिंग क्लर्क ने उसे जैसे झिड़कते हुए स्वर में साफ कह दिया।
उसे फिल्म में शेर से हीरो की लड़ाई देखनी थी। कब-कब शहर आना होता है? उसने पूरे पैसे बढ़ाते हुए टिकट ले ली। फिल्म में उसने हीरो और शेर की लड़ाई का पूरा एन्जॉय किया। उसमें हीरो लहू-लुहान हो गया था पर हीरो ने शेर को पटखनी देकर नीचे गिरा दिया जिसे देख वो अपनी सीट से उठकर ताली बजाने लगा तब उसके पीछे बैठे दर्शकों ने उसे बैठाया।
उस सीन के समाप्त होते ही उसकी सारी जिज्ञासा शांत हो गई थी और आगे की फिल्म उसे बोर करने लगी थी। खैर, जैसे ही फिल्म का इंटरवल हुआ वो बाहर आ गया। उसने सिनेमा की केंटीन में समोसे का रेट पूछा तो कान सन्न रह गए। ₹60/- का एक। उसने सोचा बाहर जाकर समोसा खा लेते हैं। सिनेमा के परिसर से बाहर जाकर उसने ₹10/- का समोसा लिया और खाने लगा। वहाँ दो लोग और भी खा रहे थे। उसकी इच्छा अब हाॅल में जाने की नहीं थी। उसकी इच्छा अभी भी उस हीरो और शेर की लड़ाई वाला सीन देखने की हो रही थी। उसने समोसा खा रहे आदमी से पूछा – “भैय्या! एक बात बतै हो का?”
आदमी ने प्रश्न वाचक दृष्टि उस पर डाली।
“हमाओ मतबल है कि जे टिकट कल भी आधी फिलम के लाने चल सकै का?”
आदमी उसकी बात समझकर अपने साथी की तरफ देखकर मुस्कुराया फिर पलट कर बोला – ” हाँ हाँ, क्यों नहीं? आपने अभी पूरी फिल्म तो देखी नहीं है तो आप आधी फिल्म कल भी देख सकते हो!”
ये सुन कर उसकी बाँछे खिल गईं। उसने अपनी जेब में रखे टिकट को थपथपाया और अपने दोस्त के घर की ओर खुशी- खुशी चल दिया।
आगे क्या होगा ये सुधी पाठक स्वयं ही अंदाज़ लगा सकते हैं।
(काल्पनिक रचना )