आखिरी चैप्टर
हवेली के पीछे के कमरे में पिछले साल से बंद पड़ीं विरधीचंद के माता—पिता और दादा—दादी आदि की धूल खा रही तसवीरों को निकालकर जमकर झाड़ा—पोंछा गया। इसके साथ ही यह तय किया गया कि श्राद्धवाले दिन पंडितजी को रसोईघर के सामने वाले कमरे में बैठाया जाएगा ताकि ताजा—ताजा छनकर आ रहीं गरमा—गरम पूड़ियां, बगैर अपना तापमान रत्तीभर भी खोए हुए सीधे—सीधे पंडितजी के मुखारबिंद में समा जाएं!
श्राद्ध वाले दिन पंडितजी 10 बजे ही विरधीचंद के यहां पहुंच गए। जल्द ही उन्होंने श्राद्ध का क्रियाकर्म शुरू कर दिया। अब ये लाओ, अब वो लाओ, यहां खीर चढ़ाओ, वहां पूड़ी चढ़ाओ, उधर दक्षिणा रखो आदि बातें कहते हुए वे बुंदेली मिश्रित संस्कृत मे मंत्र आदि बोलते हुए विरधीचंद की उठक—बैठक कराते रहे। जब उन्होंने देखा कि विरधीचंद लस्त हो रहे हैं तो उन्होंने श्राद्धकर्म की समाप्ति की घोषणा कर दी। पंडितजी का यह ऐलान पूरे 2200 गज की हवेली में तूफान की तरह फैल गया।
बच्चों को उम्मीद बंध गई कि अब उन्हें सुस्वादु खाना खाने को मिलेगा। इससे पहले तक वे बेचारे पानी पी—पीकर अपनी भूख को कंट्रोल करने लगे थे। रामकली और उनकी बहन को उम्मीद हो गई कि रसोईघर की आंच में वे जो सुबह चार बजे से तपस्या कर रही हैं, उससे निजात मिलेगी। गोबर सिंह यह सोचकर खुश था कि चलो बार—बार भागकर बाजार जाकर पंडितजी के आदेशानुसार सामान लाने से उसे मुक्ति मिलेगी। उधर, विरधी चंद यह सोचकर प्रसन्न थे कि चलो श्राद्ध तो अच्छे से हो गया अब वे भोजन और दक्षिणा से पंडितजी को तृप्त करके पुरखों के साथ—साथ वे भी तर जाएंगे। पर जो इंसान सोचे, वही हो जाए तो भगवान को कौन पूछेगा? बस भोजन की बारी आते ही पंडितजी ने वामन से विराट होना शुरू कर दिया।
पंडितजी को चांदी के थाल में भोजन परोसा गया। उन्हेांने पहले दाल—चावल पर हाथ साफ किया फिर रायतों की बारी आई। जब रायतों के बरतन खाली होकर बजने लगे तो सलाद—पापड़ों को उन्होंने उदस्थ करना शुरू किया। जब सलाद—पापड़ साफ हो गए तो बड़े—मंगोड़े और फिर दो किलो इमरती!! सब पंडितजी के पेट में समाते गए। इसके बाद नंबर आया सब्जियों और पूड़ियों का! करीब दो किलो सब्जी पलक झपकते कहां गायब हो गई, रामकली सोचती ही रह गईं। उन्होंने फुल स्पीड से पूड़ियां बेलना शुरू किया और श्यामकली ने उन्हें तलना! कुछ देर में ऐसा लगने लगा मानो दो पैसेंजर ट्रेनें एक शताब्दी एक्सप्रेस को मिलकर पछाड़ने की कोशिश कर रही हों। जब तक चार पूड़ियां बन पातीं, पंडितजी आठ पूड़ियों की फरमाइश कर बैठते! कुल मिलाकर तीन किलो आटे की पूड़ियां ऐसे गायब हो गईं मानो कोई जादूगर काला जादू दिखा रहा है।
आखिर में पंडितजी ने खीर पीना शुरू किया। एक कटोरी, दो कटोरी, तीन कटोरी, चार कटोरी, न विरधीचंद की परसाई रुकती और न ही पंडितजी का खीर पीने का सिलसिला! करीब 15 मिनट में ही ढाई किलो दूध की खीर कहां गायब हो गई, विरधीचंद हिसाब ही नहीं लगा सके। पंडितजी का विराट रूप देखकर विरधीचंद की तो घिग्घी बंध गई! ज्यों—ज्यों पंडितजी खाने—पीने की सामग्री के बरतनों को खाली करते जाते, विरधीचंद के माथे पर त्योरियों की संख्या बढ़ती जाती।
जब खीर की बाल्टी भी खाली होकर टन्न—टन्न बोलने लगी तो पंडितजी के मुख से निकला— और कछु है का, जजमान?
बस क्या था? विरधीचंद का पारा एकदम से हाई हो गया। वे बिना झिझके, रोष से लाल अपना मुंह लेकर पंडितजी के सामने रखे थाल में जाकर बैठ गए और बोले— अब हमईं बचे हैं। हमें पाय लो!
विरधीचंद का रौद्ररूप देखकर पंडितजी का गला सूख गया। उन्होंने जल्दी—जल्दी तीन—चार लोटा पानी पिया और विरधीचंद द्वारा थमाए पांच सौ रुपये के नोट को लेकर पंडिताइन के पल्लू में जाकर छिपने में ही अपनी खैर समझी!
इस प्रकरण के बाद विरधीचंद ने भूख से बिलबिलाते अपने परिवार को कसके के कालू के ढाबे में जाकर लंच करवाया। पेट भरने के बाद वे सभी तृप्त महसूस कर रहे थे।
(काल्पनिक कहानी )