-विजय कुमार तैलंग, जयपुर (राजस्थान)
वे तीनों मुख्य द्वार की ओर जाने लगे।
श्री जगत नारायण जी भी खड़े हो गए। तभी एक सेविका चाय की ट्रे लिए बरामदे में प्रविष्ट हुई जिसे श्री जगत नारायण जी ने इशारे से वापस लौटा दिया।
~~~~~~
श्री जगत नारायण जी के कोई संतान नहीं हुई थी। पत्नी काफी कुछ दहेज लेकर आई थी लेकिन असमय ही किसी असाध्य रोग से ग्रसित हो चल बसी थी। उनके कोई भाई बहिन भी नहीं थे। दूर के यदि कोई रिश्तेदार थे भी तो उन्होंने उनसे कभी कोई संपर्क नहीं रखा। हवेली जैसी पुश्तैनी कोठी में तब केवल वे ही थे और कुछ नौकर चाकर।
कहते हैं कि कितनी भी संपत्ति क्यूँ न हो, यदि वो किसी लाभकारी योजना में निवेश नहीं की जाती और आगे भी आमदनी का कोई स्रोत नहीं बनता तो धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। श्री जगत नारायण जी के यहाँ जो उनका बैंक बैलेंस था और जो धन राशि शादी के बाद घर पर जमा पड़ी थी वो कोठी के रखरखाव में नियमित रूप से खर्च होती रहती थी जिसमें कोई टूट फूट की मरम्मत करवाना, बिजली पानी के खर्च, वहाँ के नौकर चाकरों को दी जाने वाली तनखा, श्री जगत नारायण जी के देश-विदेश भ्रमण व पुस्तकों के प्रकाशन, पोस्टेज आदि पर खर्च होने वाली धन राशि सम्मिलित थी।
खर्चा तो बराबर हो रहा था लेकिन आमदनी कुछ नहीं हो रही थी। साहित्य के क्षेत्र में नाम व सम्मान तो मिल जाता है लेकिन वहाँ नियमित आय का कोई स्रोत नहीं मिलता। वे चाहते तो उनका समाज ही उन्हें हाथों हाथ ले लेता और कोई निश्चित आय का साधन भी उपलब्ध करवा देता परंतु समाज को अपने से कमतर समझने की मानसिकता ने उन्हें समाज से सदैव दूर ही रखा। समाज वालों ने उन्हें ऐसी मानसिकता को तोड़ने के कई अवसर भी दिये लेकिन उन्होंने उसे समाज की ही कमजोरी समझ कर अनदेखा किया। जाने वे क्यों ये समझते थे कि उनकी सम्पन्न स्थिति का फायदा उठाने के लिए समाज जाने उनसे क्या मांग रख दे? उनके ऊँचे संपर्कों का लाभ लेने के लिए समाज के कोई सदस्य उनसे जाने कैसी संस्तुति लिखवा लें?
अत: वे इस प्रकार व्यवहार करते थे जैसे वे समाज से बड़े हैं, समाज को उनकी जरूरत हो सकती है लेकिन उन्हें समाज की कभी कोई जरूरत नहीं पड़ेगी। उनपर समाज का कोई उपकार नहीं है। इसी कारण वे कभी भी सामाजिक गोष्ठियों, आयोजनों व कार्यक्रमों में भाग नहीं लेते थे। जहाँ किसी नेक कार्य के लिए उनकी भी भागीदारी की समाज द्वारा अपेक्षा की जाती थी, उससे भी वे दूर हट जाते थे। धीरे-धीरे समाज में उनकी ‘विमुख व्यक्ति’ की छवि बनने लगी थी और कोई उन्हें किसी वार्ता में सम्मिलित करने का सुझाव भी न देता था।
क्रमश:
(काल्पनिक रचना)
No Comment! Be the first one.