-विजय कुमार तैलंग, जयपुर (राजस्थान)
समाज के वयोवृद्ध, वरिष्ठ एवं भव्य व्यक्तित्व के स्वामी श्री शुभांग उपाध्याय महाराज जी के कार से उतरते ही सामने विशाल कोठी पर खड़ा सुरक्षा गार्ड सावधान हो गया। महाराज जी के साथ समाज के दो अन्य प्रभावी एवं वरिष्ठ सदस्य भी थे। गार्ड के पास आकर महाराज जी के साथ आये एक सज्जन बोले-
“श्री जगत नारायण जी को सूचित करें कि उपाध्याय महाराज जी पधारे हैं।” (समाज में वे इसी नाम से जाने जाते थे।)
गार्ड ने उन्हें बारामदे में लगे सोफे पर बैठने का संकेत किया और स्वयं भीतर प्रवेश कर गया।
“कौन महाराज?” जगत नारायण जी जो अपने पुस्तकालय में एक पुस्तक खोले बैठे थे, गार्ड के बताने पर, अन्यमनस्क मुद्रा में बोले।
“जी, उनके साथ आये सज्जन ने उन्हें ‘महाराज’ ही कहा है!”
“ओह! उनके साथ और भी हैं? कितने हैं?”
“बस, दो और हैं साब! यहीं भेज दूँ?”
“नहीं, उन्हें वहीं बैठे रहने दो। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। ” सुनकर गार्ड लौट गया।
लगभग बीस मिनिट बाद बारामदे में श्री जगत नारायण जी का प्रवेश हुआ। उन्होंने उपाध्याय महाराज जी को देखकर हल्का सा सिर झुकाते हुए अभिवादन किया जबकि महाराज जी के साथ आये दोनों वरिष्ठ जनों ने खड़े होकर श्री जगत नारायण जी का अभिवादन किया। समाज के अत्यंत वरिष्ठ धर्म परायण शख्सियत श्री शुभांग जी महाराज को विशेष सम्मान देने के लिए समाज के लोगों में उनके चरण स्पर्श करने की परंपरा सी बन गई थी किंतु श्री जगत नारायण जी द्वारा ऐसा न किये जाने से उनके साथ आये दोनों सज्जनों ने जरा असहज महसूस किया। वैसे भी उपाध्याय महाराज उन्हीं के विशिष्ट आग्रह पर ही श्री जगत नारायण जी से मिलने प्रथम बार उनके निवास स्थल पर पधारे थे।
श्री जगत नारायण जी साहित्य की प्रमुख हस्तियों में एक माने जाते थे। वे राष्ट्रीय साहित्यिक मंचों से कई प्रशस्ति पत्र व तमगे प्राप्त कर चुके थे। जहाँ भी वे जाते थे उनका शाल ओढ़ा कर सम्मान किया जाता था। वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी ख्याति प्राप्त कर चुके थे। समाज के लोग उनकी तमाम उपलब्धियों पर गर्व करते थे और उनकी प्रशंसा के गीत गाते थे। समाज के नवयुवकों को उनकी सफलता के उदाहरण दिये जाते थे। किसी आयोजन या कार्यक्रम में उनकी उपस्थिति रौनक बढ़ा देती थी। वे समाज के एक अति विशिष्ट व्यक्तित्व से कम न थे इसलिए उन्होंने उपाध्याय महाराज जी को केवल सिर झुकाकर अभिवादन करना ही यथेष्ट समझा था। वे सदैव सामाजिक कार्यों से कुछ दूरी बनाये रखते थे और स्वयं को विशिष्ट व्यक्ति व अपने समाज से कुछ ऊपर की चीज मानते थे।
श्री जगत नारायण जी ने महाराज जी के साथ आये सुरेश प्रसाद जी की ओर उन्मुख होते हुए कहा –
“आप तो जानते होंगे कि मेरे पास कितना कार्य रहता है। अभी भी मैं एक पुस्तक की मीमांसा लिख रहा था जिसका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जल्द ही विमोचन होने वाला है। आप अगर फोन पर बता देते कि महाराज जी को साथ ला रहे हैं तो मैं मिलने के लिए उपयुक्त समय दे देता।”
“जी, हमने इतना नहीं सोचा था। हम ज्यादा समय नहीं लेंगे आपका।” साथ आये दूसरे सज्जन महेश प्रसाद जी ने उत्तर दिया।
क्रमश:
(काल्पनिक रचना)
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